रविवार, अप्रैल 19, 2009

बहुत पहले से भी बहुत पहले- अशोक चक्रधर

बहुत पहले
बहुत पहले
बहुत पहले से भी बहुत पहले
इस असीम अपार अंतरिक्ष में
घूमती विचरती हमारी धरती!
बड़े-बड़े ग्रह-नक्षत्रों के लिए
एक नन्हा-सा चिराग़ थी।
एक लौ थी और
फकत आग ही आग थी।

बहुत पहले
बहुत पहले
बहुत पहले से भी बहुत पहले
जब प्रकृति की सर्वोत्तम कृति
मनुष्य का कोई हत्यारा नहीं था,
तब समंदर का पानी भी
खारा नहीं था।

बहुत पहले
बहुत पहले
बहुत पहले से भी बहुत पहले
जब बिना किसी पोथी के
इंसान एक दूसरे की आँखों में
प्यार के ढ़ाई आखर बाँचता था,
तो समंदर
अपनी उत्ताल लय ताल में
मुग्ध-मगन नाचता था।
लहर-लहर बूँद-बूँद उछलता था,
तट पर बैठे प्रेमियों के
पैर छूने को मचलता था।

अचानक किसी सुमात्रा में
बेहद कुमात्रा में
तलहटी काँपी,
तो जाने कौन-सी कुलक्षणी कुनामी
पर कहने को सुनामी
लहरों ने लंबी दूरी नापी।

वो लहरें
झोंपड़ियों मकानों बस्तियों को
ढहा कर ले गईं,
प्यारे-प्यारे इंसानों को
बहा कर ले गईं।

बहुत पहले
बहुत पहले
बहुत पहले से भी बहुत पहले
जिन्होंने भी अपने-अपने आत्मीय खोए,
वे खूब-खूब रोए।
झोंपड़ी के आँसू बहे
बस्ती के आँसू बहे
शहरों के आँसू बहे
मुल्कों के आँसू बहे।

इतने सारे
मानो रुके हुए हों
सदियों से आँसू,
पानी भरो तो मिले
नदियों से आँसू।

और जैसे ही व्याकुल सिरफिरा
पीड़ा का पहला आँसू
समंदर में गिरा
समंदर सारा का सारा
पलभर में हो गया खारा।

बहुत पहले
बहुत पहले
बहुत पहले से भी बहुत पहले
समंदर सारा का सारा
पलभर में हो गया खारा

लेकिन ज़िंदगी नहीं हारी
न तो हुई खारी,
बनी रही ज्यों की त्यों
प्यारी की प्यारी।
क्योंकि
हर गीली आँख के कंधे पर
राहत की चाहत का हाथ था,
इंसान का इंसानियत से
जन्म जन्मांतर का साथ था।
फिर से चूल्हे सुलगे
और गर्म अंगीठी हो गई,
मुहब्बत की नदियाँ
फिर से मीठी हो गईं।
फिर से महके तंदूर
फिर से गूँजे और चहके संतूर।
फिर से रचे गए
उमंगों के गीत,
फिर से गूँजा जीवन-संगीत।

शापग्रस्त पापग्रस्त
समंदर भले ही रहा
खारे का खारा,
लेकिन उसने भी
देख लिया हौसला हमारा।
मरने नहीं देंगे किसी को
हम फिर से आ रहे हैं
तेरी छाती पर सवारी करने।
इस बार ज़्यादा मज़बूत है
हमारी नौका,
छोड़ेंगे नहीं मुस्कुराते हुए
जीवन जीने का
एक भी मौका।

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