ऐसा कभी नहीं हुआ था।
धर्मराज लाखों वर्षो से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग और नरक में निवास-स्थान अलाट करते आ रहे थे। पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोरों से बन्द किया कि मख्खी चपेट में आगई। उसे निकालते हुए वे बोले, ''महाराज, रिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पांच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआ, पर अभी तक यहां नहीं पहुंचा।''
धर्मराज ने पूछा, ''और वह दूत कहां है?''
''महाराज, वह भी लापता है।''
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहां आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत होगया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, ''अरे तू कहां रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहां है?''
यमदूत हाथ जोडक़र बोला, ''दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया। आज तक मैने धोखा नहीं खाया था, पर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पांच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा, तब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं इसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्योंही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहां गायब होगया। इन पांच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर उसका पता नहीं चला।''
धर्मराज क्रोध से बोले, ''मूर्ख, जीवों को लाते-लाते बूडा हो गया, फिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।''
दूत ने सिर झुकाकर कहा, ''महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके, पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''महाराज, आजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते है, और वे रास्ते में ही रेलवे वाले उडा देते हैं। होज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाडी क़े डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उडा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी ने, मरने के बाद, खराबी करने के लिए नहीं उडा दिया?''
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, ''तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भला, भोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?''
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि वहां आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, ''क्यों धर्मराज, कैसे चिंतित बेठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?''
धर्मराज ने कहा, ''वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों से बडे ग़ुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाई। बडे-बडे इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक विकट उलझन आगई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पांच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहां ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।''
नारद ने पूछा, ''उस पर इनकम टैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने उसे रोक लिया हो।''
चित्रगुप्त ने कहा, ''इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।''
नारद बोले, ''मामला बडा दिलचस्प है। अच्छा, मुझे उसका नाम, पता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूं।''
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया - ''भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडक़े और एक लडक़ी। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पांच साल पहले रिटायर हो गया था, मकान का उस ने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड दिया। आज पांचवां दिन है। बहुत संभव है कि, अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।''
मां बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहिचान गए।
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, ''नारायण नारायण !'' लडक़ी ने देखकर कहा, ''आगे जाओ महाराज।''
नारद ने कहा, ''मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी मां को ज़रा बाहर भेजो बेटी।''
भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, ''माता, भोलाराम को क्या बिमारी थी?
''क्या बताऊं? गरीबी की बिमारी थी। पांच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थे, पर पेन्शन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थे, पर वहां से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेन्शन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पांच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।''
नारद ने कहा, ''क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी।''
''ऐसा मत कहो, महाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेन्शन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पांच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौडी नहीं मिली।''
दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, ''मां, यह बताओ कि यहां किसी से उनका विषेश प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो?''
पत्नी बोली, ''लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से होता है।''
''नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, कोई स्त्री?''
स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, ''बको मत महाराज ! साधु हो, कोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आंख उठाकर नहीं देखा।''
नारद हंस कर बोले, ''हां, तुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा माता, मैं चला।'' व्यंग्य समझने की असमर्थता ने नारद को सती के क्रोध की ज्वाला ने बचा लिया।
स्त्री ने कहा, ''महाराज, आप तो साधु हैं, सिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रूकी पेन्शन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?''
नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, ''साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहां कोई मठ तो है नहीं? फिर भी सरकारी दफ्तर में जाऊंगा और कोशिश करूंगा।''
वहां से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुंचे। वहां पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, ''भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थीं, पर उनपर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।''
नारद ने कहा, ''भई, ये पेपरवेट तो रखे हैं, इन्हें क्यों नहीं रख दिया?''
बाबू हंसा, ''आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।''
नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजा, चौथे ने पांचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, '' महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहां साल-भर भी चक्कर लगाते रहें, तो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बडे साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लिया, तो अभी काम हो जाएगा।''
नारद बडे साहब के कमरे में पहुंचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थे, इसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बडे नाराज़ हुए।बोले, इसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्या? धडधडाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?''
नारद ने कहा, ''कैसे भेजता, चपरासी सो रहा है।''
''क्या काम है?'' साहब ने रौब से पूछा।
नारद ने भोलाराम का पेन्शन-केस बतलाया।
साहब बोले, ''आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भई, यह भी मन्दिर है। यहां भी दान-पुण्य करना पडता है, भेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड रही हैं, उन पर वज़न रखिए।''
नारद ने सोचा कि फिर यहां वज़न की समस्या खडी हो गई। साहब बोले, ''भई, सरकारी पैसे का मामला है। पेन्शन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता है, तब पक्की होती है। हां, जल्दी भी हो सकती है, मगर '' साहब रूके।
नारद ने कहा, ''मगर क्या?''
साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, ''मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लडक़ी गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधु-संतों की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लडक़ी जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।''
नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर संभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, ''लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेन्शन का आर्डर निकाल दीजिए।''
साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।
साहब ने हुक्म दिया, ''बडे बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।''
थोडी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेन्शन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, ''क्या नाम बताया साधुजी आपने!''
नारद समझे कि ऊंचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, ''भोलाराम।''
सहसा फाइल में से आवाज़ आई, ''कौन पुकार रहा है मुझे? पोस्टमैन है क्या? पेन्शन का आर्डर आ गया क्या?''
साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, ''भोलाराम, तुम क्या भोलाराम के जीव हो?''
''हां।'' आवाज़ आई।
नारद ने कहा, ''मैं नारद हूं। मैं तुम्हें लेने आया हूं। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।''
आवाज़ आई, ''मुझे नहीं जाना। मैं तो पेन्शन की दरखास्तों में अटका हूं। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरखास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।''
बुधवार, नवंबर 25, 2009
भोलाराम का जीव - हरिशंकर परसाई
हाय मेरे नितम्ब!
कामिनी को कमनीय काया की कामना न हो, तो कामिनी ही कैसी? आप जानते ही होंगे कि आदम और हव्वा को ज़मीन पर इसीलिये ढकेला गया था कि आदम महाशय हव्वा की क़यामती काया को देखकर ऐसे बदहवास हो गये थे कि फ़रिश्ते की मुमानियत का ख़याल भूलकर उसे कौरिया लिया था। तब से आज तक हव्वा की हर बेटी को अपने को अपार खूबसूरत दिखने का शौक जुनून की हद तक रहता है। बेटियां चलने फिरने लायक हुईं कि मॉ को अपनी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी लिप-स्टिक, बिंदी, और क्रीम पाउडर की हिफ़ाज़त करना प्रारम्भ कर देना पड़ता है। जिन दिनों बेटों में नकली बंदूक से धांय धांय करने का शौक जागता है, बेटियां कंघी से आडे-तिरछे बाल संवार कर शीशे में अपने चेहरा निहारना शुरू कर देतीं हैं। और जवानी का रंग चढ़ते चढ़ते तो कन्यायें अपनी सुंदरता पर ऐसी आत्मविभोर हो जातीं हैं जैसे सावन के अंधे को हर सिम्त हरा हरा ही सूझता है।
यह बात दीगर हैं कि अब बराबरी का ज़माना आ गया है और आदमियों को भी यह ज़नाना शौक चर्रोने लगा है। एक मेरे लड़कपन का वक्त था कि जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाले मेरे एक पहलवानछाप दोस्त ने जब एक हमउम्र हव्वा को आंख मारकर उसका दिल दहला दिया था, तो हव्वा की शिकायत बड़े बूढ़ों ने यह कहकर खारिज़ कर दी थी कि 'वह /मेरा दोस्त/ ऐसा कर ही नहीं सकता है क्योंकि वह सिर घुटाकर रहता है और पतलून तो क्या कभी सुथन्ना /पाजामा/ भी नहीं पहिनता है।' उन बूढ़ों की समझ में अपनी खूबसूरती के प्रति बेख़बर सिर सफाचट रखने वाला और धोती-कुर्ता पहिनने वाला लड़का भीष्म-प्रतिज्ञ ब्रह्मचारी के अलावा और हो ही क्या सकता था? जब कि सच यह था कि मेरे दोस्त मोशाय सूरत के जितने भोले थे, सीरत के उतने ही मनचले थे, और मौका हाथ आते ही इधर उधर मुंह मार लेते थे। उन दिनों मैं भी अच्छा बच्चा समझे जाने के चक्कर में सिर पर एक लम्बी और मोटी चोटी रखता था और बेखौफ़ लुकाछिपी कर लेता था। पर आज ज़माना बदल गया है और खुला खेल फरक्काबादी खेला जाने लगा है। अब तो कल-के-छोकरे न सिर्फ बालों की लहरदार कुल्लियां रखाये घूमते हैं बल्कि हर घंटे, आध-धंटे में बडों के सामने बेझिझक उन पर कंघी भी फिराते रहते हैं। आज के लड़कों के मुंह से तोतले बोल भी डिज़ाइनर टी-शर्ट और लिवाइज़ जीन्स की फ़रमाइश के साथ ही निकलते हैं। और वे ऐसा क्यों न करें जब उनके बापों को खुले आम ब्यूटी पार्लर में नमूदार होते और वहां से होठों पर लिप-स्टिक लगवा कर और गालों पर पाउडर क्रीम चुपड़वाकर निकलते देखा जाता है? जब बाप छुलकां मूतते हैं तो बेटे चकरघिन्नी की तरह घूम - घूम कर मूतेंगे ही।
ऐसे माहौल में ब्यूटी पार्लर वालों की पांचो उंगलियां घी में हो गईं हैं। अगर आप बेकार हैं और बेकाम के आदमी /या औरत/ हैं तो एक कमरे के दरवाजे पर 'मेल ब्यूटी पार्लर' या 'लेडीज़ ब्यूटी पार्लर' या सिर्फ़ 'ब्यूटी पार्लर' का बोर्ड जड़ दीजिये और उसके दाहिने कोने पर पेंटर से शहनाज़ हुसेन का एक गहरा रंगा-पुता चित्र बनवा दीजिये। फिर चाहे वह चित्र टुनटुन जैसा ही क्यों न दिखता हो, आप पायेंगे कि उस दरवाजे क़ी शामें रोज़ ज्यादा से ज्यादा खुशनुमा हो रहीं हैं और आप की तिजोरी की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।
रूप और रुपयों की यह बरसात देखकर डाक्टरों का माथा भी ठनका है और उन्होंने सोचा है कि वे भी क्यों न इस बहती गंगा में हाथ धो लें? सो उन्होंने फ़िगर सुधारने के 'भरोसेमंद' शॉर्ट कट्स निकालने शुरू कर दिये हैं। उन्हीं में एक को नाम दिया है लिपो सक्शन जिसका हिंदी तर्जुमा होता है कि अगर आप के शरीर का कोई अंग जैसे पेट, जांधें आदि हिप्पो जैसा मोटा है तो वे उसकी चर्बी को खींच कर उसे लिपा हुआ सा पतला बना देंगे। लिपो सक्शन के ईजाद होने की खबर जैसे ही धनी महिलाओं में फैली कि चारों ओर हड़बडी मच गई। कौन नहीं जानता है कि बेमुरौव्वत चर्बी को महिलाओं के पेट से बेपनाह उन्सियत होती है- जहां किसी 36.24.36 की कमनीय काया को मातृत्व की गरिमा प्राप्त हुई, तो अविलम्ब 24 की मध्य-संख्या 36 की गुरुता को प्राप्त करने को उतावली होने लगती है। हाल में रोमानिया की एक माडल के बच्चा पैदा होने पर उसके साथ भी यही हादसा हुआ और वह अपने पेट की चर्बी से काफी ग़मगीन रहनें लगी। हालांकि उसके नितम्ब एवं वक्ष पर भी कुछ चर्बी आ गई थी, परंतु देखने वालों ने उस चर्बी से उसकी सुंदरता में चार चांद लगने की बात कही थी- बस पेट की चर्बी ही चांद पर ग्रहण लगा रही थी। वह माडल एक मशहूर कौस्मेटिक सर्जन का नाम सुनकर उनके पास पेट की चर्बी कम कराने गई। मोटा ग्राहक फंसते देखकर सर्जन साहब के चेहरे पर रौनक आ गई और वह फटाफट बोले,'अरे, यह तो मिनटों का काम है।', और फिर अपनी व्यस्तता दिखाने हेतु डायरी देखते हुए लिपो सक्शन हेतु दूर की एक तारीख़ निश्चित कर दी। वह तारीख़ आते आते सर्जन साहब यह भूल गये कि लिपो सक्शन कहां का होना है, और जब आपरेशन थियेटर में एनिस्थीसिया के नशे में वह माडल अपनी कमर के पुन: पुरुष-संहारक हो जाने का स्वप्न देख रही थी तब उन्होंने सक्शन यंत्र उसके नितम्ब में लगाकर उन्हें निचोड़ दिया। जब माडल की मोहनिद्रा खुली और उसने अपने बदन को टटोला तो वह यह जानकर हतप्रभ रह गई कि उसका पेट यथापूर्व मोटा था और उसके नितम्ब निचुड़ गये थे जिससे उसका बदन ऐसा हो गया था जैसे बांस की खपाचों पर गेहूं से भरा बोरा रख दिया गया हो।
यह देखकर विषादपूर्ण आश्चर्य से उसके मुख से बस तीन शब्द निकले, ''हाय मेरे नितम्ब!''
विलासिता का दुख
जब कभी भी किसी विकसित देश में उपलब्ध आम जनसुविधओं के बारे में सुनता या पढ़ता हूं तो हृदय से हूक उठ जाती है। अब इसका अर्थ आप यह कदापि ग्रहण न करें कि मैं उनकी सुविधा-सम्पन्नता से जल उठता हूं। बिना किसी आत्म प्रवंचना के कहूं तो मुझे यह उनकी विपन्नता ही नजर आती है। सुख-सुविधाओं का जो मायाजाल अपने देश में निहित है वह कहीं ओर कहां हो सकता है। अब आप ही बताइए वो सुविधा किस काम की जो आप को बांध कर ही रख दे। सुना है अमेरिका में बिजली कटौती न के बराबर है। यदि ऐसा है तो वहां के घरों में रहने वाले लोग इक्का-दुक्का मौकों पर ही एक-साथ घर से बाहर निकलते होंगे। अब अपने यहां देखिए दिन में दसियों घंटों तक तो बिजली गुल रहती है, बिजली होती भी है तो जल देवता नदारद मिलते हैं। इन दोनों ही अवसरों पर जमावड़ा चौक पर होता है। दिन में 24 घंटों में से 16 घंटे तक रौनक घर के बाहर ही होती है और ऐसे अवसरों पर जो मुख और श्रवण सुख मनुष्येन्द्रियों को प्राप्त होता है, वह भला उन पाश्चात्य देशों में रहने वाले लोगों को कहा मिलता होगा। अपने यहां की महिलाएं एवं पुरुष दोनों ही इस अवसर का लाभ अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए बखूबी करते हैं। दूसरों की बुराइयां करने में जो सुख मिलता है वो भला 5 सितारा होटलों में अब बताइएं यह किस काम की विकसिता। ट्रेफिक नियमों के संबंध में भी वहां फैली विषयता झलकती है। बी.एम.डब्ल्यू, मर्सिडीज आदि जैसी अनेक हाई क्लास भारी-भरकम गाड़ियां भी अदनी-सी रेड लाइट के इशारे पर नाचती हैं, अपने यहां तो लखटकिया वाली छकड़ा गाड़ी भी काले धुंए का गुबार उड़ाती हुई फर्राटे से ट्रैफिक नियमों को धत्ता बताकर रख देती है। बड़ी-बड़ी गाड़ीवालों का तो कहना ही क्या! वो तो जब तक जी चाहा रोड पर, नहीं तो फुटपाथ पर दौड़ पड़ती हैं विदेशों में मॉडर्न ऑर्ट की मांग बहुत हो, परन्तु वहां पर इस कार्य के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। अपने यहां तो लोग मुंह में कूची लेकर घूमते रहते हैं। जहां दिल किया पच्च... पिचकारी मारी और दीवार पर मॉडर्न ऑर्ट तैयार। जबकि विदेशों में तो सड़क पर थूकने पर ही जुर्माने का प्रावधान है। अब आप ही बताइए यह कहा का इंसाफ है कि मनुश्य को सोने के पिंजरे में कैद करके रखा जाए। संभवत: यह सारी कमियां वहां के प्रशासन की देन है। हम अपने विकास के पाषाणयुग को भी नहीं भूलते बल्कि उसका यदा-कदा प्रदर्शन सांसद में कर उसका सीध प्रसारण देश भर में करवा देते हैं ताकि हमारी वास्तविक पहचान छोटे-छोटे बच्चों तक के हृदय में स्थायी बनी रहे। हम अपनी शारीरिक क्षमता एवं धाराप्रवाह बोलने की दक्षता का सटीक अवलोकन संसद में माइक, कुर्सी, मेज तोड़कर तथा धरने के दौरान चीख-पुकार कर दर्शा देते हैं। हमारे मन में जब भी भड़ास उत्पन्न होती है, तो उसे सरकारी वस्तुओं यथा बस, ट्रेन के शीशे, खंभे, ग्रिलों आदि पर इत्मीनान से निकाल देते हैं। अब आप ही कहें, ऐसा क्या वहां संभव है। वहां के लोग घरों के अंदर दुबक कर सोते हैं। अपने यहां तो आम आदमी रात को चने चबाकर पानी का घूंट मारकर तसल्ली से ग्रहों से विचार-विमर्श कर सोता है। वहां पर लोग विकेंड सिस्टम से चलते हैं परन्तु अपने सरकारी कर्मचारी तो कार्यालय में रहकर भी विकेंड मनाते हैं। ऐसी विसंगतियों के चलते यदि वह यह भ्रम मन में पाल कर बैठें हैं कि वह विकसित है, तो मैं इस पर सिर्फ खिसयानी हंसी ही हंस सकता हूं।
उर्वशी : पुरुष अध्यात्म का रूमान
उर्वशी की भूमिका में दिनकर ने मनु, इड़ा और पुरुरवा, उर्वशी के मिथक की तुलना करते हुए कहा है− ÷÷मनु और इड़ा तथा पुरुरवा और उर्वशी, ये दोनों ही कथाएं एक ही विषय को व्यंजित करती हैं। सृष्टि विकास की जिस प्रक्रिया के कर्त्तव्य पक्ष का प्रतीक मनु और इड़ा का आख्यान है, उसी प्रक्रिया का भावना पक्ष पुरुरवा और उर्वशी की कथा में कहा गया है।'' एक काव्यनाटक के रूप में उर्वशी का उद्देश्य क्या रहा होगा, इसे समझने में यह कथन मदद करता है। ÷आधुनिकता' की भारतीय परियोजना उन पश्चिमी उपकरणों की मोहताज रही जो तर्कबुद्धि की महत्ता से आक्रांत थे। इनके द्वारा मांजी गयी हमारी ÷आधुनिक' चेतना मानुष्यिक संघटन के भावनात्मक पक्ष को नजरअंदाज करती गयी। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारा ध्येय यह नहीं होना चाहिए कि तर्कबुद्धिवाद की दार्शनिक उपलब्धियों को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। बात सिर्फ इतनी है कि तर्कबुद्धि पर अंधी आस्था यांत्रिाकता और स्थूलता की प्रवृत्ति को जन्म देती है, जो स्वयं तार्किकता की दार्शनिक जड़ों में मठ्ठा डालने का काम करती है। कला और साहित्य के क्षेत्र में जब यह प्रवृत्ति आलोचनात्मक व्यसन बन जाती है तब किसी रचना की शक्ति और कमजोरी का सही आकलन करना असम्भव हो जाता है। हिन्दी में यह प्रवृत्ति हमेशा विद्यमान रही है और कई रचनाकार इसके शिकार हुए। दिनकर इन्हीं रचनाकारों में से एक हैं। यह बात अलग है कि वह ताकतवर नहीं, बल्कि कमजोर शिकार हैं क्योंकि वह नशे के नहीं, खुमार के कवि हैं।
दिनकर को छायावादी ÷हैंगओवर', खुमार का कवि माना जाता है। खुमार सिर्फ उस नशे को ही व्यंजित नहीं करता जो कभी सर चढ़ कर बोला था। वह उस नशे की ढलान, उसके खत्म होते असर को भी व्यंजित करता है। खुद दिनकर के काव्य के भीतर छायावाद की यह ढलान, उसका खत्म होता असर विद्यमान है। दिनकर की रचनाओं के साथ समस्या यह रही कि वे छायावाद के प्रेमियों और विरोधियों के बीच नूराकुश्ती का सबब बनी। प्रेमियों ने जहां जम कर सराहा, वहीं विरोधियों ने बुरी तरह कोसा। यानि संज्ञा तो दी गयी खुमार, मगर बर्ताव ऐसे किया गया मानो साक्षात नशा हो।
÷उर्वशी' का प्रकाशन हिन्दी आलोचना के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिसे आज ÷उर्वशी विवाद' के नाम से जाना जाता है, वह आलोचना में लोकतांत्रिाकता की बड़ी मिसाल बना। आजादी के बाद पहली बार बड़े स्तर पर विभिन्न पीढ़ियों और विचारों के लेखकों की भागीदारी और टकराव देखने को मिला। निःसंदेह इस विवाद ने हिन्दी आलोचना को एक नयी धार दी,उसे सकारात्मक दिशा में प्रवृत्त किया, और काव्य के बदलते मूल्यों एवं प्रतिमानों को परखने की नयी दृष्टि प्रदान की। आज ÷उर्वशी विवाद' साहित्येतिहास के पन्नों में दफ्न हो चुका है। लगभग पचास वर्ष बाद इस विवाद से फूटी आलोचना की प्रखर किरण का हश्र क्या हुआ, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
÷उर्वशी' का नायक पुरुरवा है− रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है। इस प्रकार ÷उर्वशी' का नायक ऐन्द्रीय सुख पर निसार होने वाला मनुष्य है। वह देह का तिरस्कार नहीं करता। ÷उर्वशी' की विषयवस्तु का केन्द्रीय तत्व काम है। देवत्व और मनुष्यत्व को काम के निकष पर जिस साहस के साथ यहां कसा गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है :
भू को जो आनंद सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को।
हम भी कितने विवश! गंध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर−माधुरी श्रवण से,
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से।
पर, जब कोई ज्वार रूप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है,
उठती जो वेदना यहां, खुल कर न कभी खिलती है।
किन्तु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बंध नहीं है,
रुके गंध तक, वहां प्रेम पर यह प्रतिबंध नहीं है॥
देवत्व ÷गंध' की सीमा में कैद है। इस कैद से मुक्त होना ही मनुष्य होना है :
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु रस पीता है।
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक धधक जीता है।
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है,
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है।
काम का यह निकष देवों को हीन और मनुष्यों को श्रेष्ठ साबित करता है। प्रतिबंध रहित प्रेम नश्वरता का वरदान है। इसी वरदान को प्राप्त करने के लिए उर्वशी अमरत्व की ऊंचाई से उतर कर नश्वरता के धरातल पर कदम रखती है। उसकी यह यात्रा एक ढलान है-स्वर्ग से धरती की ओर, शिखर से धरातल की ओर, ऊंचाई से नीचे की ओर। ऊपर से नीचे की ओर आना हमेशा पतन की व्यंजना नहीं करता। ढलान में एक किस्म की गरिमा हो सकती है, यह संदेश उर्वशी देती है। छायावाद के प्रभुत्व वाले दौर में ढलान की इस गरिमा को पहचानना असम्भव था। छायावाद की महत्वपूर्ण रचनाएं (कहने की जरूरत नहीं कि निराला की रचनाएं अपवाद हैं) धरती से स्वर्ग की ओर, धरातल से शिखर की ओर और नीचे से ऊपर की ओर मनुष्य की उठान को महिमामंडित करती हैं। जिस हद तक दिनकर ढलान की गरिमा को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं, उस हद तक ÷उर्वशी' नयी चेतना का काव्य बन कर उभरता है।
किन्तु दिनकर की भाषा में छायावादी सौन्दर्यबोध की धारा प्रत्यक्षतः प्रवाहित होती है। ÷उर्वशी' के प्रकृति चित्रण में यह सौन्दर्य दृष्टि सर्वाधिक प्रखर है :
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन, मगन है।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ जाओ री।
यह रात रुपहली आयी।
मुदित चांद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन हिंडोरे पर, किरणों के तार बढ़ाओ री!
यह रात रुपहली आयी।
÷उर्वशी' की कथा जैसे जैसे आगे बढ़ती है, नयी चेतना का आवेग गहराता जाता है। मगर उसकी छायावादी सौन्दर्य दृष्टि जब धरती को स्वर्ग से बड़ा दर्जा देने वाली नयी चेतना के इस गहराते आवेग से टकराती है, उससे उलझती है तो अपनी धार खो बैठती है। परिणाम यह होता है कि कविता जिस नयी चेतना का वाहक बनना चाहती है, उसकी भाषा लगातार उससे दूर भागती है। नयी चेतना, नयी भाषा की मांग करती है। कवि इस नयी भाषा को कविता की परम्परागत भाषा में तोड़फोड़ करके प्राप्त करते हैं। मगर दिनकर को यह तोड़फोड़ मंजूर नहीं। हां, वह भाषा में कुछ ठोंकपीट अवश्य करते हैं, उसे विषयानुकूल बनाने के लिए। यह ठोंकपीट कहीं कहीं सफल भी हो जाती है। रानी औशीनरी की व्यथा को अभिव्यक्त करने वाली भाषा इसका उदाहरण है :
कितना विलक्षण न्याय है!
कोई न पास उपाय है!
अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है।
दुख दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं।
मगर इस ठोंकठाक से काम ज्यादा चल नहीं पाता। काव्य की संरचनागत समग्रता खंडित हो जाती है। ÷उर्वशी' की भाषा और उसकी अंतर्वस्तु के बीच फांक पड़ जाती है। इस फांक को छिपाने के लिए कविता चमत्कारपूर्ण उक्तियों, वाग्जाल और शब्दाडम्बर का सहारा लेती है, जो अंततः उसे और कमजोर करते हैं। ÷उर्वशी' के तीसरे अंक को उसका सार भाग माना जाता है। मगर इस अंक की आरम्भिक पंक्तियां ही चमत्कारिक उक्ति और शब्दाडम्बर से ग्रस्त हैं :
जब से हम तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जाने कितनी बार चंद्रमा को, बारी बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।
÷उर्वशी' में धरती और स्वर्ग, देह और आत्मा, मही और आकाश, देव और मनुज, मातृ सुख से वंचित अप्सरा नारी और मातृ सुख को भोगने वाली साधारण नारी के द्वंद्व को उकेरा गया है। मूलतः यह द्वंद्व काम और योग का द्वंद्व है। तमाम शब्दाडम्बर के बावजूद यह द्वंद्व तीसरे अंक में सर्वाधिक तीक्ष्ण है। पुरुरवा की इन पंक्तियों में यह द्वंद्व साकार रूप ग्रहण करता है :
मैं मनुष्य, कामना वायु मेरे भीतर बहती है
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से
मन का दीपक बुझा, बना कर तिमिराच्छन्न हृदय को।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष, तिमिर में दीपक फिर जलते हैं।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।
इस पर आश्चर्यग्रस्त उर्वशी प्रश्न करती है :
यह मैं क्या सुन रही? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गयी किसी सुर के बाहु वलय में?
अंधकार की मैं प्रतिमा हूं? जब तक हृदय तुम्हारा
तिमिरग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करूंगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को,
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है, मगर इन प्रश्नों में धरती का नारीत्व गूंज रहा है। धरती और नारी जननी हैं। उर्वशी अपनी कसी हुई देहयष्टि का त्याग कर माता बनने को तैयार है। मां बनने पर उसका सौन्दर्य ढल जाएगा। मगर वह जानती है कि यह ढलान गरिमामय है। उर्वशी के मुख से फूटे इन प्रश्नों में नारीत्व की गरिमा छिपी है। ये प्रश्न पुरुरवा को देह के अधिकारों के प्रति सचेत करते हैं :
÷÷पर, न जानें, बात क्या है!
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाहें मिला कर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूं,
प्राण के सर में उतरना चाहता हूं।
कौन कहता है,
तुम्हें मैं छोड़ कर आकाश में विचरण करूंगा?''
उर्वशी मानवीय भावना के उद्दाम आवेगों का प्रतिनिधित्व करती है। वह दृढ़ है कि ÷रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी' क्योंकि ÷निरी बुद्धि की निर्मितियां निष्प्राण हुआ करती हैं।' पुरुरवा का पुरुष भी ÷रक्त' को ÷बुद्धि' से अधिक बलशाली मानता है, मगर एकदम विपरीत
अर्थ में :
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नही पाते हैं।
यह भावना नहीं, बल्कि अनासक्ति का तर्क है। पुरुरवा काम के आवेग में डूबना चाहता है, मगर अनासक्ति का तर्क उसे बार बार ऊपर खींच लाता है। पुरुरवा उर्वशी के प्रणय सम्वाद से निर्मित तृतीय अंक ÷उर्वशी' का सबसे लम्बा भाग है। मूल द्वंद्व शुरू के सात आठ पृष्ठों में ही मुखर हो उठता है। आगे इस द्वंद्व का दोहराव भर है, हालांकि शब्द बदले हुए हैं। यहां द्वंद्व का विस्तार नहीं, बल्कि पर्यायवाची आशय है जो इस अंक को बोझिल और निस्सार बना देता है। अनावश्यक स्फीति उर्वशी पुरुरवा सम्वाद की मार्मिकता और ताजगी को नष्ट कर देती है। फिर भी अंत की ओर बढ़ने पर ये पंक्तियां ताजा हवा के झोंके की तरह आती हैं :
कुसुम और कामिनी, बहुत सुंदर दोनों होते हैं,
पर, तब भी नारियां श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।
सुमन मूल सौन्दर्य और नारियां सवाक सुमन हैं।
÷उर्वशी' की भूमिका में दिनकर लिखते हैं : ÷÷भावना और तर्क, हृदय और मस्तिष्क, कला और विज्ञान अथवा निरुद्देश्य आनंद और सोद्देश्य साधना, मानवीय गुणों के ये जोड़े नवीन मनुष्य को भी दिखायी देते हैं और वे प्राचीन मानव को भी दिखाई पड़े थे। मनु और इड़ा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क, विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के अर्थ पक्ष को महत्व देता है। किन्तु पुरुरवा उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय, कला और निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम पक्ष का माहात्म्य बताता है।'' ÷उर्वशी' में पुरुषार्थ के काम पक्ष के माहात्म्य का बोध किस तरह किया गया है इसका गवाह तृतीय अंक का यह संदेश है :
चिन्तन की लहरों के समान सौन्दर्य लहर में भी है बल,
सातों अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारि का स्वर्णांचल।
÷उर्वशी' यह संदेश देती है, मगर आगे बढ़ कर नहीं, बल्कि पीछे हटकर। उर्वशी आरम्भ में धरती और देह के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करती है। मगर अब वह ÷सौन्दर्य लहर' के बल द्वारा पुरुरवा को दीक्षित करने के क्रम में देह को भ्रम के रूप में निरूपित करने लगती है :
÷÷मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो :
मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो
सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।''
यहां दिनकर के साहित्य बोध पर दृष्टिपात करना तस्वीर को कुछ और साफ करने में सहायक होगा। संयोग से इसके लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, भूमिका के कुछ अंश को एक बार फिर उद्वृत करना होगा : ÷÷कला, साहित्य और विशेषतः काव्य में भौतिक सौन्दर्य की महिमा अखंड है। फिर भी, श्रेष्ठ कविता, बराबर, भौतिक से परे भौतिकोत्तर सौन्दर्य का संकेत देती है, ÷फिजिकल' को लांघ कर ÷मेटा फिजिकल' हो जाती है।'' इस तरह दिनकर की काव्य चेतना जिसे महत्वपूर्ण मानती है, वह ÷फिजिकल' नहीं, बल्कि ÷मेटा फिजिकल' है। अतः दिनकर की सौन्दर्य लहर, जिसकी श्रेष्ठता का बखान उर्वशी करती है, पाठक को बहा कर वहीं ले जाती है, जहां पुरुष अध्यात्म की चिन्तन लहर पहुंचती है। ये वेदांत से निःसृत पुरातन मूल्य हैं, जिन्हें आजादी के बाद सत्ता की बागडोर संभालने वाले भारत के तथाकथित नीति निर्माताओं ने परम्परा की संज्ञा दी और उन पर उदारता का मुलम्मा चढ़ाया। दिनकर भारतीय परम्परा की इसी शासकीय व्याख्या के अलम्बरदार थे। ÷उर्वशी' की रचनात्मक गत्वरता को जो शक्ति नियंत्रिात कर रही है, उसे ÷संस्कृति के चार अध्याय' में बिना किसी लागलपेट के देखा जा सकता है। दिनकर का वेदांती मन रामकृष्ण परमहंस के संदर्भ में भारतीय महापुरुष की व्याख्या इस तरह करता है : ÷÷किन्तु रामकृष्ण ने नारी की ऐसी निन्दा कभी नहीं की। अपनी पत्नी की तो उन्होंने प्रशंसा ही की है। हां, काम भोग को साधना की बाधा वे भी मानते थे और उनका भी उपदेश यही था कि नर नारी एक दूसरे से अलग रह कर ही अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने एक बार कहा था, ÷उन दिनों मुझे स्त्रिायों से डर लगता था। ... अब वह अवस्था नहीं रही। अब मैंने मन को बहुत कुछ सिखा पढ़ा कर इतना कर लिया है कि स्त्रिायों की ओर आनंदमयी माता के भिन्न भिन्न रूप जान कर देखा करता हूं। तो भी, यद्यपि, स्त्रिायां जगदम्बा के ही अंश हैं, तथापि साधु साधक के लिए वे त्याज्य ही हैं।'' (संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 494)। इस पर आगे दिनकर टिप्पणी करते हैं : ÷÷कामिनी और कांचन के विषय में किसकी क्या दृष्टि है तथा इनके आकर्षण से कौन कहां तक बचता है, यही वह कसौटी है जिस पर भारतीय महापुरुषों की जांच होती आयी है। रामकृष्ण इस कसौटी पर खरे उतरे।'' (वही)। स्पष्ट है कि किसी महापुरुष की भारतीयता का निकष यही है कि वह कामिनी और कांचन का परित्याग करे। इसी तरह दिनकर के वेदांती मन की गांठ का पता वहां भी चलता है जब ÷संस्कृति के चार अध्याय' में भारतीय सभ्यता पर इस्लामी प्रभाव के बारे में वह अनर्गल टिप्पणी करते हैं।
यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि ÷निरुद्देश्य आनंद की महिमा' का गुणगान करने वाला पुरुरवा उर्वशी का मिथक, ÷उर्वशी' में निरुद्देश्य नहीं है। उसका एक स्पष्ट उद्देश्य है − सनातन समझे जाने वाले वेदांती मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा। सारी ढलान अंततः गरिमा खो देती है। उर्वशी का सौन्दर्य पुरुरवा की अनुभूति में घुल कर विसरित हो जाता है − नीचे से ऊपर की ओर, धरती से स्वर्ग की ओर, मही से आकाश की ओर, मूर्तन से अमूर्तन की ओर :
अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखों से
रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,
बांहों में जिसको समेट कर उर से लगा रहा हूं,
रक्त मांस की मूर्ति नहीं, वह सपना है, छाया है।
छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य वसन में,
देह ग्रहण करने पर भी तुम रहीं अदेह विभा सी।
यह ÷अदेह विभा' भारतीय पुरुष अध्यात्म का ध्येय रही है। ÷उर्वशी' इसी पुरुष अध्यात्म का रूमान है क्योंकि यहां देह में डूब कर, उसकी तरंगों के आवेग में बह कर ÷अदेह' तक पहुंचा गया है। ÷अदेह विभा' की चमक बिखेरने के लिए देह का तिरस्कार नहीं, बल्कि स्वीकार है। छायावादी सौन्दर्यबोध और राष्ट्र व परम्परा की शासकीय धारणाओं का अनुभागी होने के चलते दिनकर को इस ÷अदेह' के पुंसत्व ने बंधक बना रखा है। इस बंधन के बावजूद उन्होंने देह को साधने की कोशिश की है। दिनकर को जिस सांस्कृतिक काव्यधारा का कवि माना जाता है वह नयी कविता आंदोलन के समानांतर प्रवाहित हुई थी। नयी कविता का नया भावबोध देह की महत्ता को नये सिरे से परिभाषित कर रहा था। दिनकर नयी कविता के बाहर के कवि हैं, फिर भी नये भावबोध के असर को उन्होंने शिद्धत से महसूस किया। अतः यह उचित ही कहा गया है कि नयी कविता के बिना ÷उर्वशी' की कल्पना कठिन थी। विडम्बना यह है कि दिनकर के पिछड़े संस्कार नयी चेतना के साथ ज्यादा दूर तक नहीं जा पाये। देह धारण करने के बावजूद उनकी उर्वशी ÷अदेह' का ही गुणगान करती रही। दिनकर की काव्य भाषा भी देह के साथ उतनी सहज नहीं, जितनी कि ÷अदेह' के साथ। सबसे ध्यान देने योग्य यह है कि ÷उर्वशी' का काव्य देह से ÷अदेह' में संक्रमित हो जाता है, महज भावोच्छवास द्वारा। अतः ÷उर्वशी' वास्तविकता के किसी धरातल को तोड़ने के बजाए हवाई किले बनाने लगती है। ÷उर्वशी' का आरम्भ नारी सौन्दर्य के सम्बंध में जिस नयी संवेदना की उम्मीद जगाता है, उसका अंत नारीत्व की पिटी पिटायी सनातनी अवधारणा का साक्ष्य बनता है :
नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, क्षांति, करुणा है।
इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,
हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है।
चलते चलते कुछ बातें दिनकर की उस टिप्पणी पर जो उन्होंने पुरुरवा उर्वशी के पुत्र आयु के सम्बंध में की है। वह ÷उर्वशी' की भूमिका में लिखते हैं :÷÷जब देवी सुकन्या यह सोचती है कि नर नारी के बीच संतुलन कैसे लाया जाए, तब उनके मुंह से यह बात निकल पड़ती है कि यह सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। इसलिए रयचिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु, पुरुषों की रचना आदि नारियां करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रवण एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।
÷÷इस पर आयु यह दावा करता है कि मैं ही तो वह पुरुष हूं, जिसका निर्माण नारियों ने कियाहै।
÷÷आयु का कहना ठीक था और वह प्रसिद्ध राजा भी हुआ, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है। किन्तु उल्लेख इस बात का भी है कि युवक राजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।
÷÷फिर वही बात!
÷÷पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है; और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।''
यह लम्बा उद्धरण दिनकर की पुरुष दृष्टि का परिचायक है। यह दृष्टि भूल जाती है आयु लड़ाई में इसलिए नहीं हारा, क्योंकि उसका निर्माण नारियों ने किया है। उसकी हार का कारण यह है कि अब तक की सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। पुरुषों की रचना यदि नारियां करने लगें तो धरती पर शायद युद्ध कभी हो ही नहीं। और अगर हो भी तो! कौन जाने वह जीतने के बजाए हारने के लिए ही लड़ा जाए! जीतना अप्रासंगिक हो जाए!
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अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी-
चादर उठाते हैं
तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं
इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं
मुनव्वर राना की कविता की ये पंक्तियाँ मैंने स्याह-ब्लॉग पोस्ट पर पढ़ी। गूगल पर कुछ और सर्च करते करते मैं अचानक इस ब्लॉग पोस्ट तक पहुँच गई।
स्याह- यानी काला... बड़ा ही अजीब सा नाम है इस ब्लॉग पोस्ट का... शायद इसे यह नाम अपनी काली, लेकिन सुंदर पृष्ठभूमि की वजह से दिया है जिस पर सभी अक्षर स्पष्ट और सुंदर नज़र आते हैं।
खैर.. नाम में क्या रखा है। मैं आपको इस ब्लॉग पोस्ट के बारे में इसलिए बता रही हूँ क्योंकि मैंने यहाँ उर्दू और हिन्दी के कई नामचीन कवियों जैसे अली सरदार जाफ़री, गुलज़ार, गोपाल दास "नीरज", जावेद अख़्तर, नज़ीर अकबराबादी, निदा फ़ाज़ली, निदा फ़ाज़ली, फ़िराक़ गोरखपुरी, शहरयार आदि की बेहतरीन शायरी और कविताओं
को पाया।
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