बुधवार, मार्च 25, 2009

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे

हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा

फिर आखिर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड दिया

4 टिप्पणियाँ:

AAKASH RAJ ने कहा…

बहुत सुन्दर आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .........

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जीवन को करीब से देखने की कोशिश की है आपके कवी मन ने..........इश्क दुबारा शुरू करें, ये भी काम ही है
अच्छी रचना

Deepak Sharma ने कहा…

मेरी सांसों में यही दहशत समाई रहती है
मज़हब से कौमें बँटी तो वतन का क्या होगा।
यूँ ही खिंचती रही दीवार ग़र दरम्यान दिल के
तो सोचो हश्र क्या कल घर के आँगन का होगा।
जिस जगह की बुनियाद बशर की लाश पर ठहरे
वो कुछ भी हो लेकिन ख़ुदा का घर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर कौ़में बनाने वालों सुन लो तुम
काम कोई दूसरा इससे ज़हाँ में बदतर नहीं होगा।
मज़हब के नाम पर दंगे, सियासत के हुक्म पे फितन
यूँ ही चलते रहे तो सोचो, ज़रा अमन का क्या होगा।
अहले-वतन शोलों के हाथों दामन न अपना दो
दामन रेशमी है "दीपक" फिर दामन का क्या होगा।
@कवि दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.co.in
इस सन्देश को भारत के जन मानस तक पहुँचाने मे सहयोग दे.ताकि इस स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके और आवाम चुनाव मे सोच कर मतदान करे.
काव्यधारा टीम

Sanjay Grover ने कहा…

जानता हूं मैं तुमको ज़ौके-शायरी भी है.....