शुक्रवार, मई 01, 2009

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ

फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ

आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ


हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार

जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ


हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से

हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ


आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर

जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ


चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें

बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ


सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े

यारों को अगर दस्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ


मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब

हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ


हक़= सच; जुर्रते-इज़हार=स्वीकार करने का साहस; पैकर=चेहरे;
लौहें=कब्र पर लगा पत्थर; शहरे-ख़मोशाँ=कब्रिस्तान;
दश्ते-मुसीबत=मुसीबतों का जंगल; इज़्न=इजाज़त

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