ग़र चाहूं तेरे पास आना
तुम दूर चले जाना
ग़र चाहूं तुम्हें बुलाना
तुम पास कभी न आना।
मेरे लिए तुम हो कोई
दीवानों की ख्वाब सी
खामोश मन से निकली हुई
कविताओं की मेरी प्रेयसी।
ग़र गुजरूं कभी तेरी गलियों से
और सुन ले मेरे कदमों की आहट
मिल जाए जो निगाहें मुझसे
ठुकराकर मेरी निगाहों की चाहत।
मेरी बेकरार सी आंखों से
तुम निगाहें चुरा लेना
याद भी करूं ग़र तुम्हें
तुम मुझे भूल जाना।
मेरे लिए तुम हो कोई
आसमां की चांद सी
यादों में विचरती हुई
मेरे स्वप्नलोक की रूपसी।।
गुरुवार, मई 07, 2009
'मेरी प्रेयसी' - सौरभ कुणाल
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