उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा भरा देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद सा देखे
मिरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे
तिरे सिवा भी कई रंग खुश नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाक़त जो
जब आँखें खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे
रविवार, फ़रवरी 21, 2010
उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
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