रविवार, दिसंबर 18, 2011

उर्वशी---प्रथम अंक

पात्र परिचय
पुरुष
पुरुरवा - वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक
महर्षि च्यवन - प्रसिद्द ;भ्रिगुवंशी, वेदकालीन महर्षि
सूत्रधार - नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र
कंचुकी -
सभासद -
प्रतिहारी -
प्रारब्ध आदि
आयु - पुरुरवा-उर्वशी का पुत्र
महामात्य - पुरुरवा के मुख्य सचिव
विश्व्मना - राज ज्योतिषी


नारी
नटी - शास्त्रीय पात्री, सूत्रधार की पत्नी
सहजन्या, रम्भा, मेनका, चित्रलेखा - अप्सराएं
औशीनरी - पुरुरवा पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी
निपुणिका,मदनिका - औशिनरी की सखियाँ
उर्वशी - अप्सरा, नायिका
सुकन्या - च्यवन ऋषी की सहधर्मिणी
अपाला - उर्वशी की सेविका
--------------------
-------------------
प्रथम अंक आरम्भ

साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य,
तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम

राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।

सूत्रधार
नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों

नटी
इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,
मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी
कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो

सूत्रधार
सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को
गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है

नटी
सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा मॅ
समाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता – सा लगता है.

सूत्रधार
स्वच्छ कौमुदी मॅ प्रशांत जगती यॉ दमक रही है,
सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन मॆ.
शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर मॅ
प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो .

(ऊपर आकाश मॅ रशनाऑ और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है. बहुत- सी अप्सराऍ एक साथ नीचे उतर रही हैँ).

नटी
शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वर कैसा?
अतल व्योम-उर मॅ ये कैसे नूपुर झनक रहे है?
उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणॅ लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायॅ उतर रही है?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवॉ की वीणा की रागिनियाँ भटक गई है?
उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियॉ-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले मॅ?
या वसंत के सपनॉ की तस्वीरॅ घूम रही है
तारॉ-भरे गगन मॅ फूलॉ-भरी धरा के भ्रम से?

सूत्रधार
लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायॅ अम्बर की
उतरे हॉ ज्यॉ गुच्छ गीत गाने वाले फूलॉ के.
पद-निक्छेपॉ मॅ बल खाती है भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत ,हंसी से फूल झरे जाते है.
तन पर भीगे हुए वसन है किरणॉ की जाली के,
पुश्परेण-भूशित सब के आनन यॉ दमक रहे है,
कुसुम बन गई हॉ जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर.

नटी
फूलॉ की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ है?

सूत्रधार
नही, चन्द्रिका नही, न तो कुसुमॉ की सहचरियाँ है,
ये जो शशधर के प्रकाश मॅ फूलॉ पर उतरी है,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाऍ है
देवॉ की रण क्लांति मदिर नयनॉ से हरने वाली
स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की.

नटी
पर,सुरपुर को छोड आज ये भू पर क्यॉ आई है?


सूत्रधार
यॉ ही, किरणॉ के तारॉ पर चढी हुई, क्रीडा मॅ,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है.
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्यॉकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कह्ते है,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नही है.
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो मॅ भरने को अकुलाता है
गगन, भूमि, दोनॉ अभाव से पूरित है,दोनो के
अलग-अलग है प्रश्न और है अलग-अलग पीडाये.
हम चह्ते तोड कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन मॅ,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते है.

एक स्वाद है त्रिदिव लोक मॅ, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बडा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालॉ को .
किन्तु ,सुनॅ भी तो, ये परियाँ बातॅ क्या करती है?

{नटी और सूत्रधार वृक्श की छाया मॅ जाकर अदृश्य हो जाते है. अप्सरायॅ पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली और झरनॉ के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती है}

परियॉ का समवेत गान
फूलॉ की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई.
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरॉ मॅ तैर नहाओ री !
यह रात रुपहली आई.
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन मॅ मौन मगन है.
ऐसे मॅ नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !
यह रात रुपहली आई.
मुदित चाँद की अलकॅ चूमो,
तारॉ की गलियॉ मॅ घूमो,
झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणॉ के तार बढाओ री !
यह रात रुपहली आई..

सहजन्या
धुली चाँद्ननी मॅ शोभा मिट्टी की भी जगती है,
कभी-कभी यह धरती भी कित्नी सुन्दर लगती है!
जी करता है यही रहॅ ,हम फूलॉ मॅ बस जायॅ!

रम्भा
दूर-दूर तक फैल रही दूबॉ की हरियाली है,
बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है.
जी करता है, इन शीतल बून्दॉ मॅ खूब नहायॅ.

मेनका
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी है,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी है.
जी करता है,फूलॉ को प्राणॉ का गीत सुनायॅ.

समवेत गान
हम गीतॉ के प्राण सघन,
छूम छनन छन, छूम छनन.
बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन.
छूम छनन छन, छूम छनन.
सपनॉ की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती है भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन.
हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,
बरसाती फिरती रस-कन.
छूम छनन छन, छूम छनन.
----------------
----------------
रम्भा
बिछा हुआ है जाल रश्मि का,मही मग्न सोती है,
अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है.

मेनका
कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन मॅ
उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन मॅ?

रम्भा
प्रश्न उठे या नही, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है ,
मर्त्यलोक मरने वाला है ,पर सुरलोक अमर है.
अमित, स्निग्ध ,निर्धूम शिखा सी देवॉ की काया है ,
मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है.

मेनका
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नही प्राप्त अम्बर को.
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते है,
स्वाद व्यंजनॉ का न कभी रसना से ले पाते है.
हो जाते है तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से
रूप भोगते है मन से या तृष्णा भरे नयन से.
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा मॅ जीवन पड़ जाता है,

उस पीड़ा से बचने की तब राह नही मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नही है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नही है

नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ कर फूलॉ को गले लगाए.
पर, सुर बनॅ मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते है,
गन्धॉ की सीमा से आगे देव न जा सकते है.

क्या है यह अमरत्व? समीरॉ-सा सौरभ पीना है,
मन मॅ धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है.
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगॉ के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है.

सहजन्या
साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कही फंसा है ?
मिट्टी का मोहन कोई अंतर मॅ आन बसा है?
तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?
किन्ही मर्त्य नयनॉ की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?
सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो
मर्त्यॉ की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो.

रम्भा
अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई
आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नही क्यॉ आई?

सहजन्या
वाह तुम्हे ही ज्ञात नही है कथा प्राण प्यारी की ?
तुम्ही नही जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की ?
नही जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से
लौत रही थी जब, इतने मॅ एक दैत्य ऊपर से
टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर
और तुरंत उड गया उर्वशी को बाहॉ मॅ लेकर.
--------------------------
---------------------------
रम्भा
बाहॉ मॅ ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ.

सह्जन्या
यही कि हम रो उठी, “दौड़ कर कोई हमॅ बचाओ”

रम्भा
तब क्या हुआ?

सह्जन्या
पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,
दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने
और उन्ही नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से
मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से.

रम्भा
ये राजा तो बड़े वीर है.

सह्जन्या
और परम सुन्दर भी.
ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नही अमर भी
इसीलिये तो सखी उर्वशी ,उषा नन्दनवन की
सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की
सिद्ध विरागी की समाधि मॅ राग जगाने वाली
देवॉ के शोणित मॅ मधुमय आग लगाने वाली
रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की
विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की
जिसके चरणॉ पर चढने को विकल व्यग्र जन-जन है
जिस सुषमा के मदिर ध्यान मॅ मगन-मुग्ध त्रिभुवन है
पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने मॅ
डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने मॅ
प्रस्तुत है देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को
स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को.

रम्भा
सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?
निरी मानवी बनकर मिट्ती की सब व्यथा सहेगी?

सहजन्या
सो जो हो. पर, प्राणॉ मॅ उसके जो प्रीत जगी है
अंतर की प्रत्येक शिरा मॅ ज्वाला जो सुलगी है
छोडेगी वह नही उर्वशी को अब देव निलय मॅ
ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय मॅ

रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?

सहजन्या
इसमॅ क्या विस्मय है?
कहते है, धरती पर सब रोगॉ से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है
दिवस रुदन मॅ, रात आह भरने मॅ कट जाती है.
मन खोया-खोया, आंखॅ कुछ भरी-भरी रहती है
भींगी पुतली मॅ कोई तस्वीर खडी रह्ती है
सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी
तन से जगी, स्वप्न के कुंजॉ मॅ मन से सोई-सी
खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़्ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ
किसी ध्यान मॅ पड़ी गँवा देती घड़ियॉ पर घड़ियाँ
दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नही होता है
आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नही होता है
मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है
भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है.
सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,
योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी.
वे नूपुर भी मौन पड़े है,निरानन्द सुरपुर है,
देव सभा मॅ लहर लास्य की अब वह नही मधुर है.
क्या होगा उर्वशी छोड जब हमॅ चली जायेगी?

रम्भा
स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी .
सहजन्ये! हम परियॉ का इतना भी रोना क्या?
किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?
हम भी है मानवी कि ज्यॉ ही प्रेम उगे रुक जाये?
मिला जहाँ भी दान हृदय का, वही मग्न झुक जायॅ
प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;
प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है
जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन मॅ भरने को
किसी एक को नही मुग्ध जीवन अर्पित करने को.
सृष्टि हमारी नही संकुचित किसी एक आनन मॅ,
किसी एक के लिये सुरभि हम नही संजोती तन मॅ.
कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल है
किसी गेह का नही दीप जो ,हम वह द्युति कोमल है.
रचना की वेदना जगा जग मॅ उमंग भरती है,
कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती है.
पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,
गन्धॉ के जग मॅ दो प्राणॉ का निर्मुक्त रमण है.

सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम
कनक-रंग मॅ नर को रंग देती अनुरागमयी हम;
देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरॉ मॅ ,
सुख से देती छोड़ कनक-कलशॉ को उष्ण करॉ मॅ;
पर यह तो रसमय विनोद है, भावॉ का खिलना है,
तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणॉ का मिलना है.

रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम
बन्ध कर कभी विविध पीड़ाऑ मॅ न कभी पचती हम.
हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल है
इच्छाऑ की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल है.

हम तो है अप्सरा ,पवन मॅ मुक्त विहरने वाली
गीत-नाद ,सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली.
अपना है आवास, न जानॅ, कित्नॉ की चहॉ मॅ,
कैसे हम बन्ध रहॅ किसी भी नर की दो बाहॉ मॅ?
और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,
उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नही खुली है.
-------------------------
------------------------
सहजन्या
कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?
सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर.

रम्भा
सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता मॅ भी यातना निहित है
नही पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है.

और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नही सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान मॅ यौवन गल जाता है
ममता के रस मॅ प्राणॉ का वेग पिघल जाता है.
रुक जाती है राह स्वप्न-जग मॅ आने-जाने की,
फूलॉ मॅ उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की .
मेघॉ मॅ कामना नही उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणॉ मॅ फिर नही इन्द्रधनुषी उमंग भरती है.

रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते है,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते है.
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?

सह्जन्या
उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,
सचमुच ही, कर रही नरक मॅ जाने की तैयारी.
तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातॅ बतलाई है!
अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़्ती दिखलाई है.

गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरण्मयी यह परी करेगी यह विरुपता धारण?
वह भी और नही कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?

रम्भा
हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,
और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को.
जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
प्रथम ग्रास मॅ ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को.
इसी देव की बाहॉ मॅ झुलसेंगी अब परियाँ भी
यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी.
पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी मॅ हलराएँगी
मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी.
पह्नेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,
नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली.

मेनका
पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन मॅ आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन मॅ जगती है!
रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी मॅ लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो

[एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़्ती आ रही है]


रम्भा
अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?
रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
तुम्हॅ नही लगता क्या, जैसे इसे कही देखा है?

सह्जन्या
दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है.

सब
अरी चित्रलेखे! हम सब है यहाँ कुसुम के वन मॅ;
जल्दी आ, सब लोग चलॅ उड़ होकर साथ गगन मॅ.
भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई.

चित्रलेखा
रुको, रुको क्षण भर सहचरियॉ! आई, मै यह आई.
खेल रही हो यही अभी तक तारॉ की छाया मॅ?
स्वर्ग भूल ही गया तुम्हे भी मिट्टी की माया मॅ?

[चित्रलेखा आ पहुंचती है]
------------------------
-------------------------
सह्जन्या
तेज-तेज सांसे चलती है, धड़क रही छाती है,
चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?

चित्रलेखा
आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी
नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी
कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नही पाउँगी,
तो शरीर को छोड- पवन मॅ निश्चय मिल जाउँगी.”

“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी
दिव मॅ रखकर मुझे नही जीवित अवलोक सकोगी.
भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो
मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो.
नही दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय मॅ
बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय मॅ.

स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग मॅ सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग मॅ मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,
नही कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मै.
तृप्ति नही अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से
ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से.

लगता है, कोई शोणित मॅ स्वर्ण तरी खेता है
रह-रह मुझे उठा अपनी बाहॉ मॅ भर लेता है
कौन देवता है, जो यॉ छिप-छिप कर खेल रहा है,
प्राणॉ के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?
जिस्का ध्यान प्राण मॅ मेरे यह प्रमोद भरता है,
उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है.

यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मै,
उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहॉ मॅ जकड़ू मै,
निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,
फूटे तन की आग और मै उसमॅ तैर नहाऊँ.
कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,
जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”

सह्जन्या
तो तुमने क्या किया?

चित्रलेखा
अरी, क्या और भला करती मै?
कैसे नही सखी के दुःसंकल्पॉ से डरती मै ?
आज सांझ को ही उसको फूलॉ से खूब सजाकर,
सुरपुर से बाहर ले आई ,सब्की आंख बचाकर,
उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन मॅ,
और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन मॅ

रम्भा
छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?

चित्रलेखा
युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए.
अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी
हमॅ देख लेती वे तो फिर बढती वृथा कहानी

नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन मॅ आई है,
अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन मॅ छाई है.
रानी ज्यॉ ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,
फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन मॅ विरहिणी-वियोगी.

रम्भा
अरी, एक रानी भी है राजा को?

चित्रलेखा
तो क्या भय है?
एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?
नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते है,
नित्य नई सुन्दरताऑ पर मरते ही रहते है.
सहधर्मिणी गेह मॅ आती कुल-पोषण करने को,
पति को नही नित्य नूतन मादकता से भरने को.
किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणॉ से,
नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणॉ से.
जितने भी हॉ कुसुम, कौन उर्वशी–सदृश, पर, होगा?
उसे छोड अन्यत्र रमॅ, दृगहीन कौन नर होगा?
कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?
एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी.

सहजन्या
तब तो अपर स्वर्ग मॅ ही तू उसको धर आई है,
नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है.

मेनका
अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन मॅ संशय है.
कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?
सखी उर्वशी की पीडा, माना तुम जान चुकी हो ;
चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?
तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,
प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?
दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन मॅ,
देखा कभी धुँआ भी उसका तूने मर्त्य भुवन मॅ?

चित्रलेखा
धुँआ नही, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,
जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है.
सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है
उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है .

छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हॅ स्वयं निज मन से,
”वृथा लौत आया उस दिन उज्ज्वल मेघॉ के वन से,
नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,
मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था.
एक मूर्ति मॅ सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?
लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से
तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यॉ धुली हुई पावक से.
जग भर की माधुरी अरुण अधरॉ मॅ धरी हुई सी.
आंखॉ मॅ वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी
तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाऑ की लाली-सी,
नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी.
पग पड़्ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलॉ से
जहाँ खड़ी हो, वही व्योम भर जाये श्वेत फूलॉ से.
दर्पण, जिसमॅ प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है.
नही, उर्वशी नारि नही, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नही, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”

फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे
अंतराग्नि मॅ पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?
जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?
कल्पलता, जानॅ, आलिंगन से कब तपन हरेगी?
आह! कौन मन पर यॉ मढ सोने का तार रही है?
मेरे चारॉ ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?

नक्षत्रॉ के बीज प्राण के नभ मॅ बोने वाली !
ओ रसमयी वेदनाऑ मॅ मुझे डुबोने वाली !
स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!
किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?
स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को
छुआ नही क्यॉ मेरी आहॉ ने तेरे अंतर को?
पर, मै नही निराश, सृष्टि मॅ व्याप्त एक ही मन है,
और शब्दगुण गगन रोकता रव का नही गमन है.
निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;
और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा.

मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,
पारिजात वन के प्रसून आहॉ से कुम्हलाएँगे.
मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नही जायेगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर मॅ वह तड़पाएगी.
और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से
या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”

सह्जन्या
यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !

चित्रलेखा
यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की.
सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है.
राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है.

सह्जन्या
महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी
समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ कहानी.

चित्रलेखा
कैसे समझे नही ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?
कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?
प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,
सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है.

सह्जन्या
तब तो चन्द्रानना-चन्द्र मॅ अच्छी होड़ पड़ी है.

मेनका
यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है.

रम्भा
अच्छ, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर मॅ,
भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर मॅ.

समवेत गान
बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !
उमड़ रही जो विभा, उसे बढ बाहॉ मॅ कस रे !
इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,
डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नही बस रे !
दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,
रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियॉ मॅ बस रे !

[सब गाते-गाते उड़ कर आकश मॅ विलीन हो जाती है]

प्रथम अंक समाप्त

0 टिप्पणियाँ: