चतुर्थ अंक आरम्भ
विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्,
शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले
-पद्म्पुराण्
एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव
उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य
मम् हस्ते न्यासीकृत:
-विक्रमोर्वशीयम्
स्थान- महर्षि च्यवन का आश्रम्
[महर्षि की पत्नी सुकन्या उर्वशी के नवजात को गोद में लिए खड़ी है. चित्रलेखा का प्रवेश]
सुकन्या
अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,
अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यॉ उचट गई है,
मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है
जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर.
यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,
जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का
या देवता-समान मात्र गन्धॉ का प्रेमी होगा?
चित्रलेखा
मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं
खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी.
और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में
भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते ; और पावस में
कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है.
सुकन्या
और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की क्या होती
है दशा?
चित्रलेखा
तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?
योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को
रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,
मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,
ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर
भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,
ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?
सुकन्या
किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर
ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!
चित्रलेखा
यही गर्व मुझको भी
हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषॉ पर,
बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,
न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;
प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से
उसी महासुख की चोटी पर चढे हुए रहते हैं,
जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखॉ को.
तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने
मात्र तुम्हे ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियॉ को
अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है.
और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने
दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है.
एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है
होकर बीचॉबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमॉ के
जिन वृक्षॉ ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है.
और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में
दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं
प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;
मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;
दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,
बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है.
मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?
तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है.
बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में
केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है.
धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहॉ में
आंख मूम्द रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,
जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरॉ पर.
धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपॉषित रहकर
जथरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं.
सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?
उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!
सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;
पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है
सुकन्या
एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगॉ का?
मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं.
योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;
गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,
जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है.
क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?
शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!
किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में
जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी
नए-नए फूलॉ पर नित उड़ती फिरनेवाली को?
नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,
तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषॉ को?
और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?
स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,
धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है.
पर, ये चित्र अचिर; भौहॉ के धनुष सिकुड़ जाएँगे,
छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलॉ की.
और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है.
पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी.
तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,
जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के
और भित्तियॉ के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है.
टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है.
इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,
किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;
न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगॉ पर
क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;
बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे
अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारॉ में.
चित्रलेखा
कौन लक्ष्य?
सुकन्या
जिसको भी समझो.
चित्रलेखा
मैं तो तृषित नहीं हूँ,
न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणॉ के.
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,
जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,
खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा.
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सुकन्या
सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो.
विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियॉ का?
पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,
ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?
अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताऑ के
जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है
हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,
न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है
एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,
दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों.
फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?
एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं.
मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुऑ को;
एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं.
अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,
उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है
निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से.
चित्रलेखा
सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है
क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,
तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियॉ को
जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं.
किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से
मुनिसत्तम खन्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?
क्रुद्ध तापसॉ से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं.
सुकन्या
डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतुहल से ही
मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की.
पर, नयनो के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,
लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हॉ,
और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को.
रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना
खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीडिता, असंज्ञ मृगी-सी
जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखॉ में.
पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनॉ का
परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में
मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो
नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से.
सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;
लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का
ज्यॉ ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं
पट सँभाल कर ख्गड़ी देखने लगी बंक लोचन से,
अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर.
अनुद्विग्न हौठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से
सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?
सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?
कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की
दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?
“वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर
शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा
प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा.
डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है.
पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,
स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी.
सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,
अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?
”मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;
शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ.
हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,
शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा.”
चित्रलेखा
कीर्त्तिमान की कीर्त्ति, साधना भावुक तपोव्रती की
जो रसमय उद्वेग त्रिया के उर में भर सकती है,
वह उद्वेग भला जागेगा मणि, माणिक्य, मुकुट से?
धन्य वही जो विभव नहीं, यश को अर्पित होती है.
सुकन्या
चित्रे! मैं भर गई, न जानें, किस अपार महिमा से?
प्रथम-प्रथम ही जाग उठा नारीत्व विभासित होकर.
लगा, सूर्य में चमक रहा जो, वह प्रकाश मेरा है,
महाव्योम में भरे रत्न् मुझसे ही छिटक पड़े हैं,
नाच रहीं उर्मियाँ भंगिमा ले मेरे चरणॉ की,
दौड़ रही वन में, जो, वह मेरी ही हरियाली है.
लौट गए थे हो निराश शत-शत युवराज जहाँ से,
वही द्वार खुल गया श्रवण कर यह प्रशस्ति तापस की,
“हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?’
हाय चित्रलेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुनी थीं?
किसे नहीं मुख में दिखा था पूर्ण चन्द्र अम्बर का,
नयनॉ में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?
पर, अदृश्य जो देव पड़े थे गहन, गूढ़ मन्दिर में,
उनका वन्दन-गान किसी ने कहाँ कभी गाया था?
लौट गए सब देख चमत्कृत शोणित, मांस, त्वचा को,
रंगॉ के प्राचीर, गन्ध के घेरॉ से टकराकर;
कोई भी तो नहीं त्वचा के परे पहुंच पाया था.
सब को लगा मोहिनी-सी मुझमें कुछ भरी हुई है,
पर, यह सम्मोहन-तरंग आती है उमड़ जहाँ से,
भीतर के उस महासिन्धु तक किसकी दृष्टि गई थी?
देखा उसे महर्षि च्यवन ने और सुप्त महिमा को
जगा दिया आयास मुक्त, निश्छल प्रशस्ति यह गाकर,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?
लगा मुझे, सर्वत्र देह की पपरी टूट रही है,
निकल रहीं हैं त्वचा तोड़ कर दीपित नई त्वचाएं;
चला आ रहा फूट अतल से कुछ मधु की धारा-सा,
हरियाली से मैं प्रसन्न आकंठ भरी जाती हूँ.
रही मूक की मूक, किंतु, अम्बर पर चढ़े हृदय ने
कहा, ‘गूढ़ द्रष्टा महर्षि ,तुम मृषा नहीं कहते हो;
परम सत्य की स्मिति उदार, मैं देवी, मैं नारी हूँ.
रूप दीर्घ तप का प्रसाद है, विविध साधनाओं से
तातस, प्रग्यावान पुरुष जो सिद्धि लाभ करते हैं,
अनायास ही सुलभ शक्ति वह रूपमती नारी को
नारी का सौन्दर्य विश्व-विजयिनी, अमोघ प्रभा है
“सचमुच ही फूटते स्पर्श से पत्र अपत्र द्रुमॉ में,
धरती जहाँ चरण उसर में फूल निकल आते हैं.
मैं अनंत की प्रभा, नहीं अनुचरी किरीत मुकुट की,
प्रणय-पुण्यशीला स्वतंत्र मैं केवल उसे वरुंगी,
जिसमें होगी ज्योति किसी दारुणतम तपश्चरण की.
किंतु, हाय, तुम एक बार क्यॉ नहीं पुन: कहते हो,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यॉ आई हो?
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चित्रलेखा
उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!
मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है.
जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखॉ में.
पर मैं क्यॉ, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?
प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!
च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ
उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से.
नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,
सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है.
सुकन्या
पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;
मन की रचना मेंनिविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का.
किंतु, नारियॉ पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,
और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुऑ पर.
कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावॉ से;
अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;
जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!
स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,
अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,
क्यॉकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है.
“जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,
उस अदोष नर के हाथॉ में कोई मैल नहीं है.”
जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को
ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?
और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में
शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है
चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरॉ पर
बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ.
”और नारियॉ में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को
देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है.
कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!
“देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदॉ के वश में;
चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी
जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो.
आकृति ऑप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावॉ से;
फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,
विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों.
दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;
देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;
यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है.”
निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना
किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?
जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं.
मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,
लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से.
सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का.
कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?
कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?”
और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,
बोले थे, “उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,
पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?
तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर
दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,
और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में
याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की.
बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,
उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है.
दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!
नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर
नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं.
नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर
महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है.
सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?
यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है.
सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;
और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,
जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का.
शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं.
महापुरुश की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;
किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का
मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताऑ को?
तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है.”
(उर्वशी का प्रवेश)
उर्वशी चित्रलेखा से-
अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!
अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियॉ से
च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?
चित्रलेखा
मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो
राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से
मनुजॉ का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है.
हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?
उर्वशी
बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?
नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?
चित्रलेखा
कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,
प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?
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उर्वशी
अरी देखती नहीं, लाल की नन्हीं-सी आंखॉ में
अब भी तो सुस्पष्ट स्वर्ग के सपने झलक रहे हैं?
टुकुर-टुकुर संतुष्ट भाव से कैसे ताक रहा है?
मानो, हो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी समर्थ देवॉ-सा!
सुकन्या
सखी! तुम्हारा लाल अभी से बहुत-बहुत नटखट है,
देख रही हूँ बड़े ध्यान से, जब से तुम आई हो,
तु पर से इस महाधूर्त की दृष्टि नहीं हटती है.
लो, छाती से लगा जुड़ाओ इसके तृषित हृदय को;
जो भी करूँ, दुष्ट मुझको अपनी माँ क्यो मानेगा?
उर्वशी
अरी! जुड़ाना क्या इसको? ला, दे, इस ह्दय-कुसुम को
लगा वक्ष से स्वयं प्राण तक शीतल हो जाती हूँ
(सुकन्या की गोद से बच्चे को लेकर हृदय से लगाती है)
आह! गर्भ में लिए इसे कल्पना-श्रृंग पर चढ़ कर
किस सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को मैने नहीं छुआ था?
यही चहती थी समेट कर पी लूँ सूर्य-किरण को,
विधु की कोमल रश्मि, तारकॉ की पवित्र आभा को,
जिससे ये अपरूप, अमर ज्योतियाँ गर्भ में जाकर
समा जाएँ इसके शोणित में, हृदय और प्राणॉ में.
यही सोचती थी त्रिलोक में जो भी शुभ, सुन्दर है,
बरस जाए सब एक साथ मेरे अंचल में आकर;
मैं समेट सबको रच दूँ मुसकान एक पतली-सी,
और किसी भी भांति उसे जड़ दूँ इसके अधरॉ पर!
सब का चाहा भला कि इसके मानस की रचना में
समावेश हो जाए दया का, सभी भली बातॉ का.
विनय सुनाती रही अगोचर, निराकार, निर्गुण को,
भ्रूण-पिंड को परम देव छू दें अपनी महिमा से.
वह सब होगा सत्य; लाल मेरा यह कभी उगेगा
पिता-सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में
और भरेगा पुण्यवान यह माता का गुण लेकर
उर-अंतर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से.
जब होगा यह भूप, प्रचुर धन-धान्यवती भू होगी,
रोग, शोक, परिताप,पाप वसुधा के घट जाएंगे;
सब होंगे सुखपूर्ण, जगत में सबकी आयु बढ़ेगी,
इसीलिए तो सखी! अभी से इसे आयु कहती हूँ.
(बच्चे को बार-बार चुमकारती है)
कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणॉ में अकथ, अपार सुखॉ की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!
और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,
अंख लगाते ही आंखॉ की पलकें झुक जाती हैं!
हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!
सुकन्या
क्यों कल क्या होगा?
उर्वशी
कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा.
यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारॉ से
कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे.
और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से.
हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,
उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है.
और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी
दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को
न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ.
भरत-शाप जितना भी कटु था, अब्तक वह वर ही था;
उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है.
सुकन्या
महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं.
यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर
पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?
बाला रहती बँधी मृदुल धागॉ से शिरिष-सुमन के,
किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,
वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है.
और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?
रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है.
कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में
किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है
कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?
कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?
यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है.
पुत्र और पति नहीं,पुत्र या केवल पति पाओगी,
सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,
और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का.
सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!
इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हे जलाकर.
चित्रलेखा
किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में
नाच-नाच कर कौन देवताऑ की तपन हरेगी
काम-लोल कटि के कम्पन, भौहॉ के संचालन से?
सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवॉ का?
भस्म-समूहॉ के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की
अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में.
सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?
बिबुध पंचशर के बाणॉ को मानस पर लेते हैं.
वश में नहीं सुरॉ के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,
ये भोगते पवित्र भोग औरॉ में वह्नि जगाकर!
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं.
क्योकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,
रसलोलुप् दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवॉ की
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पॉ पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की.
हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराऑ की
कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है.
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सुकन्या (उर्वशी से)
तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी
सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है.
उर्वशी
आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है.
कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,
दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,
और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में
जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है.
तब भी, जानें, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?
हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,
अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?
मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की
तुम्हे छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?
केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;
माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर.
सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!
मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा
यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?
किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है
वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर.
अपना सुख तृणवत नगण्य है,उसे छोड़ सकती हूँ.
किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?
देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर
जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;
गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी
खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी.
छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,
जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ.
यह धरती, यह गगन, मृगॉ से भरी, हरी अट्वी यह,
ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे.
झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से
शस्यॉ पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,
चहक-चहक उठना वह विहगॉ का निकुंज-पुंजॉ में,
स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ
अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को.
कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!
कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!
दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को
ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!
कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,
जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है.
हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणॉ में,
कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?
आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,
कौन बात है, जिसे तृणॉ पर वह लिखती जाती है?
और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलॉ का!
मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!
पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी
सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!
झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,
शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो.
किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजॉ के,
फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरॉ की
ज्वार बाँध, किस भांति, बादलॉ को छूने उठती थी?
कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर
हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!
और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,
तीर-द्रुमॉ की छाया में कितनी भोली लगती थी!
लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,
वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर.
आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!
सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,
इसी सरस वसुधा पर मैने छक कर पान किया है.
व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,
रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है
त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरॉ में,
धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?
पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी
उर:देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,
रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के.
और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसॉ को,
प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगॉ से;
रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलको में
कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,
कभी बालकॉ-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?
तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणॉ की ध्वनियॉ का;
उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;
शोणित का वह ज्वलन, अस्थियॉ में वह चिंगारी-सी,
स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,
मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों.
और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,
किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में.
सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!
विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,
क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!
यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?
पारिजा-द्रुम के फूलॉ में कहाँ आग होती है?
यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से
अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं.
जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,
ज्यॉ निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है.
किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखॉ की!
अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,
यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ.
भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है
घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,
पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!
जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,
छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में.
उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,
जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है.
हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को
न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं.
चित्रलेखा
भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!
क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी
उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर
यम की जिन्ह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?
शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में
अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को.
माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;
पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो.
और अप्सरा संततियॉ का पालन कब करती है?
उर्वशी
यॉ बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं.
सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है.
यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में
दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है
जो भी करता सुधापान , उसको रखना पड़ता है
एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर.
फिर मैं ही क्यॉ उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?
आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है.
सुकन्या
चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को
अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में.
रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,
विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं.
दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी.
(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे पुचकारते हुए बोलती जाती है)
यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;
सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखॉ का तारा है.
घुटनॉ के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा
कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के.
और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा
शशकॉ, गिलहरियॉ, प्लवंग-शिशुऑ, कुरंग-छौनॉ से
फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा
होमधेनुऑ को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में.
और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा
सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का.
फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर
बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा.
हवन-धूम से आंखॉ में जब वाष्प उमड़ आएँगे
तब मैं दोनॉ नयन पॉछ दूँगी अपने अंचल से.
शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से
जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,
पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में.
तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,
चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है.
उर्वशी
तो मैं चली.
सुकन्या
कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?
उर्वशी
उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;
प्राणॉ को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ.
“पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?”
सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं.
अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में.
[उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]
चतुर्थ अंक समाप्त
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रविवार, दिसंबर 18, 2011
उर्वशी- चतुर्थ अंक
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