'लोहा लोहे को काटता है'
किताब के पन्ने पर
छपा देखा था
वो भी मोटे अक्षरों में,
पर इंसान भी तो
आज ही काटे जा रहे हैं।
बेसक काटने का काम
आज भी लोहा ही कर रहा है
पर क्या ! लोहा ही
कर रहा है यह काम ?
काटता तो इंसान है
कटता भी इंसान ही है
लोहा तो बस एक ज़रिया है,
ये भेदभाव नहीं करता
एक तरह से है सबको काटता
निर्जीव को, सजीव को
या फिर इंसानों को भी,
भेदभाव तो इंसान करते हैं।
लोहे पर चढ़ी धार
काटने को ही बना
लोहा तो बस
अपना काम है कर रहा।
किसी की कैद में है वो
फिर उसे वो सब कुछ
करना ही पड़ेगा
जो चाहता है उसका मालिक
क्योंकि, वो गुलाम है ।
वो तो इंसान पर है
दे उसे कोई भी आकार
और कैसा भी काम ले
उस पर दिखाकर
अपना मनोविकार।।
शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009
'मनोविकार'- सौरभ कुणाल
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