मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले
उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले।
किताब—ए—माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा
न जाने कौन—सा सफ़्हा मुड़ा हुआ निकले।
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासिला निकले।
बुधवार, अप्रैल 22, 2009
मैं चाहता भी / वसीम बरेलवी
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