मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो
वो बेख़याल मुसाफ़िर मैं रास्ता यारो
कहाँ था बस में मेरे उस को रोकना यारो
मेरे क़लम पे ज़माने की गर्द ऐसी थी
के अपने बारे में कुछ भी न लिख सका यारो
तमाम शहर ही जिस की तलाश में गुम था
मैं उस के घर का पता किस से पूछता यारो
बुधवार, अप्रैल 22, 2009
मिली हवाओं में उड़ने की / वसीम बरेलवी
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