हक रखता हूं
तुझे बर्बाद करने का
प्यार भी तो तुझसे
हमीं ने किया था।
ज़माने से जब तुम्हें
मिली थी ठोकरें
स्वीकार भी तो तुझे
हमीं ने किया था।
ये क्या फलसफा है
मेरी ज़िंदगी का
ये क्या आरजू है
मेरी दोस्ती का !
कहां से चला था
कहां आ गया हूं
तेरी ज़िंदगी से
चला जा रहा हूं।
मेरी सांसों में कोई
सिमट सी गई
मेरी आंखों में कोई
नमी भी नहीं।
भूली सी बातें
उलझ सी गई हैं
सहमी हुई सांसें
खामोश हो गई हैं।
खोए से दिल में
कसक सी जगी है
यादों की चिनगारी
आग बन गई है।
भरी महफिल में
बदनाम हो गया हूं
नाम रखकर भी
गुमनाम हो गया हूं।
गुरुवार, मई 07, 2009
'बर्बादी का हक' - सौरभ कुणाल
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1 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया!
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