शुक्रवार, मार्च 27, 2009

तुमने कितनी निर्दयता की !

तुमने कितनी निर्दयता की !

सम्मुख फैला कर मधु-सागर,

मानस में भर कर प्यास अमर,

मेरी इस कोमल गर्दन पर

रख पत्थर का गुरु भार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

अरमान सभी उर के कुचले,

निर्मम कर से छाले मसले,

फिर भी आँसू के घूँघट से

हँसने का ही अधिकार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

जग का कटु से कटुतम बन्धन,

बाँधा मेरा तन-मन यौवन,

फिर भी इस छोटे से मन में

निस्सीम प्यार उपहार दिया।

तुमने कितनी निर्दयता की !

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