सब कहते हैं
कैसे गुरुर की बात हुई है
मैं अपनी हरियाली को खुद अपने लहू से सींच रही हूँ
मेरे सारे पत्तों की शादाबी
मेरे अपनी नेक कमाई है
मेरे एक शिगुफ़े पर भी
किसी हवा और किसी बारिश का बाल बराबर क़र्ज़ नहीं है
मैं जब चाहूँ खिल सकती हूँ
मेरे सारा रूप मिरी अपनी दरयाफ्त है
मैं अब हर मौसम से सर ऊँचा करके मिल सकती हूँ
एक तनवर पेड़ हूँ अब मैं
और अपनी ज़रखेज़ नुमू के सारे इम्कानात को भी पहचान रही हूँ
लेकिन मेरे अन्दर की ये बहुत पुरानी बेल
कभी-कभी जब तेज़ हवा हो
किसी बहुत मज़बूत शजर के तन से लिपटना चाहती हैं
सोमवार, फ़रवरी 22, 2010
वर्किंग वूमन
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