रुकने का समय गुज़र गया है
जाना तेरा अब ठहर गया है
रुख़्सत की घड़ी खड़ी है सर पर
दिल कोई दो-नीम कर गया है
मातम की फ़ज़ा है शहर-ए-दिल में
मुझ में कोई शख़्स मर गया है
बुझने को है फिर से चश्म-ए-नर्गिस
फिर ख़्वाब-ए-सबा बिखर गया है
बस इक निगाह की थी उस ने
सारा चेहरा निखर गया है
सोमवार, फ़रवरी 22, 2010
रुकने का समय गुज़र गया है
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