मंगलवार, मई 05, 2009

' मेरा निकम्मापन' - सौरभ कुणाल

ग़र हवाओं में दर्द न होता
तो दिल को कहां चैन मिलता
ग़र खामोश सी रात न होती
तो मन को कहां रैन मिलता ?

ऐ कुणाल !
इस भोलेपन को दर्द तो देखो
सीने में किस कदर
ज़हर सा घुल चुका चुका है।

दिल के गर्द पर
यादों का जो निशां था
हालात के थपेड़ों से
रेत सा ढह चुका है।

मैं क्या करूं
अपनी हालात-ए-बयां
होठों से सुनता हूं
आंखों से पीता हूं।

अपनी बातों का
मुझपर असर तो देखो
सांसों से कहता हूं
यादों में जीता हूं।

मर जाओ मिट जाओ
यादों में बह जाओ
पी जाओ हर दर्द
पीना इसे कहते हैं।

किसी के वास्ते मिट जाओ
हर ग़म सह जाओ
गिर गिर के उठो
जीना इसे ही कहते हैं।

आसमां को छूकर मैं
सितारों की बात करता था
पर मेरे निकम्मेपन की हद तो देखो
मैं एक चिराग भी न जला पाया
कौन कहे सारे जहां के अंधकार की
मैं अपने मन का अंधकार भी न मिटा पाया।।

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