मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

रंग लगे अंग

रंग लाए अंग चम्पई


नई लता के

धड़कन बन तरु को


अपराधिन-सी ताके

फड़क रही थी कोंपल
आँखुओं से ढक के
गुच्छे थे सोए


टहनी से दब, थक के


औचक झकझोर गया


नया था झकोरा,

तन में भी दाग लगे



मन न रहा कोरा


अनचाहा संग शिविर का,


ठंडा पा के

वासन्ती उझक झुकी,


सिमटी सकुचा के

0 टिप्पणियाँ: