रविवार, अप्रैल 26, 2009

स्वप्न भी छल, जागरण भी / हरिवंशराय बच्चन

स्वप्न भी छल, जागरण भी!



भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यित कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की, और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!



मनुज के अधिकार कैसे,
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!



जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

1 टिप्पणियाँ:

SriNidhi Mishra ने कहा…

nice poem very good selection of words that is purely sanskritnishth khadi boli....honesly very good !!----srinidhi mishra