सुन सका कोई न जिस को, वो सदा मेरी थी
मुन्फ़इल जिससे मैं रहता था, नवा मेरी थी
आख़िरे-शब के ठिठुरते हुए सन्नाटों से
नग़्मा बन कर जो उभरती थी, दुआ मेरी थी
खिलखिलाती हुई सुबहों का समाँ था उन का
ख़ून रोती हुई शामों की फ़िज़ा मेरी थी
मुद्दआ मेरा, इन अल्फ़ाज़ के दफ़्तर में न ढूँढ़
वही एक बात जो मैं कह न सका मेरी थी
मुंसिफे-शहर के दरबार में क्यूँ चलते हो
साहिबो मान गया मैं कि ख़ता मेरी थी
मुझ से बचकर वही चुपचाप सिधारा 'मख़्मूर'
हर तरफ़ जिस के तआक़ुब में सदा मेरी थी
शब्दार्थ :
मुन्फ़इल=लज्जित; नवा=आवाज़; आख़िरे-शब=रात का अन्तिम पहर; मुद्दआ=मंतव्य; मुंसिफ़े-शहर=नगर के न्यायाधीश; तआक़ुब=पीछा करना।
रविवार, अगस्त 02, 2009
सुन सका कोई न जिस को वो सदा मेरी थी
सामने ग़म की रहगुज़र आई
सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
शब्दार्थ :
साअते-क़ुर्ब=सामीप्य का लक्षण; मुख़्तसर=संक्षिप्त; शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़।
सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में
सब दम-ब-ख़ुद खड़े हुए जलते हैं धूप में
पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ
चेहरे हज़ार रंग बदलते हैं धूप में
बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम
तन्हा सुलगती रेत प' जलते हैं धूप में
सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर
मंज़र जो आसपास थे जलते हैं धूप में
पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में
'मख़्मूर' हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या
सूरजमुखी के फूल हैं, पलते हैं धूप में
शब्दार्थ :
सायबाँ=छाया करने वाले; दम-ब-ख़ुद=मौन; क़हर=प्रकोप; सब्ज़=हरे-भरे; साए-ए-अब्रे-रवाँ=गतिशील बादल की छाया।
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
वो हमसे ख़फ़ा था मगर इतना भी नहीं था
यूँ मिल के बिछड़ जाएँ, कुछ ऎसा भी नहीं था
क्या दिल से मिटे अब ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़
कर गुज़रे वो हम जो कभी सोचा भी नहीं था
रस्ते से पलट आए हैं हम किसलिए आख़िर
उससे न मिलेंगे ये इरादा भी नहीं था
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा भी नहीं था
सर फोड़ के मर जाएँ, यही राहे-मफ़र थी
दीवार में दर क्या कि दरीचा भी नहीं था
दिल ख़ून हुआ और ये आँखें न हुईं नम
सच है, हमे रोने का सलीक़ा भी नहीं था
इक शख़्स की आँखों में बसा रहता है 'मख़्मूर'
बरसों से जिसे मैंने तो देखा भी नहीं था
शब्दार्थ :
ख़लिशे-तर्के-ताल्लुक़=सम्बन्ध-विच्छेद होने की कसक; मानूस=परिचित; दर्दे-जुदाई=वियोग का दुख; मदावा=इलाज; राहे-मफ़र=भागने का रास्ता; दर= दरवाज़ा; दरीचा=खिड़की
भीड़ में है मगर अकेला है
भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
अपने-अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तन्हा हूँ वो भी तन्हा है
मंज़िलें ग़म की तय नहीं होतीं
रास्ता साथ-साथ चलता है
साथ ले लो सिपर मौहब्बत की
उस की नफ़रत का वार सहना है
तुझ से टूटा जो इक तअल्लुक़ था
अब तो सारे जहाँ से रिश्ता है
ख़ुद से मिलकर बहुत उदास था आज
वो जो हँस-हँस के सबसे मिलता है
उस की यादें भी साथ छोड़ गईं
इन दिनों दिल बहुत अकेला है
शब्दार्थ :
तन्हा=अकेला; सिपर=ढाल।
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना|
था इस राह में आख़िर हमें ख़ुद भी बिखर जाना|
हवा के दोश पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं,
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना|
[दोश=कंधे]
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी,
जहाँ इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना|
पस-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा,
इसी एक वहम को हम ने चिराग़-ए-रह्गुज़र जाना|
[पस-ए-ज़ुल्मत= अन्धेरे के आगे; मुन्तज़िर=इंतज़ार करता हुआ]
दयार-ए-ख़ामोशी से कोई रह-रह कर बुलाता है,
हमें "मख्मूर" एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना|
[दयार-ए-ख़ामोशी=मौत का घर]
पार करना है नदी को तो उतर पानी में
पार करना है नदी को तो उतर पानी में
बनती जाएगी ख़ुद एक राहगुज़र पानी में
ज़ौक़े-तामीर था हम ख़ानाख़राबों का अजब
चाहते थे कि बने रेत का घर पानी में
सैले-ग़म आँखों से सब-कुछ न बहा ले जाए
डूब जाए न ये ख़्वाबों का नगर पानी में
कश्तियाँ डूबने वालों के तजस्सुस में न जाएँ
रह गया कौन, ख़ुदा जाने किधर पानी में
अब जहाँ पाँव पड़ेगा यही दलदल होगी
जुस्तजू ख़ुश्क ज़मीनों की न कर पानी में
मौज-दर-मौज, यही शोर है तुग़यानी का
साहिलों की किसे मिलती है ख़बर पानी में
ख़ुद भी बिखरा वो, बिखरती हुई हर लहर के साथ
अक्स अपना उसे आता था नज़र पानी में
शब्दार्थ :
राहगुज़र=रास्ता; ज़ौक़े-तामीर=निर्माण की रुचि, ख़ानाख़राब=बेघरबार; सैले-ग़म=दुख की बाढ़; तजस्सुस=खोज; जुस्तजू=तलाश; ख़ुश्क=शुष्क; मौज-दर-मौज=लहर पर लहर; तुग़यानी=तूफ़ान; साहिल=किनारा; अक्स=बिम्ब।
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ|
मगर सब की क़िस्मत सफ़र है यहाँ|
सुनाई न देगी दिलों की सदा,
दिमाग़ों में वो शोर-ओ-शर है यहाँ|
हवाओं की उँगली पकड़ कर चलो,
वसिला इक यही मोतबर है यहाँ|
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ|
पलक भी झपकते हो "मख्मूर" क्यूँ,
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ|
जहाँ मैं जाऊँ हवा का यही इशारा हो
जहाँ मैं जाऊँ हवा का यही इशारा हो|
कोई नहीं जो यहाँ मुन्तज़िर तुम्हारा हो|
मेरी बुझती हुई आँखों को रौशनी बख़्शे,
वो फूल जो तेरे चेहरे का इस्त'अरा हो|
चला हूँ अपनी ही आवाज़-ए-बाज़्गश्त पे यूँ,
किसी ने दूर से जैसे मुझे पुकारा हो|
गँवा चुके कई उम्रें उम्मीद्वार तेरे,
कहाँ तक और तेरी बेरुख़ी गवारा हो|
तू पास आते हुये मुझ से दूर हो जाये,
अजब नहीं कि यही हादसा दोबारा हो|
नज़र फ़रेबी-ए-रंग-ए-चमन से बच 'मख्मूर',
जिसे तू फूल समझ ले कहीं शरारा हो|
अपना यही है सहन यही सायबान है
अपना यही है सहन यही सायबान है
फैली हुई ज़मीन खुला आस्मान है
चारो तरफ़ हवा की लचकती कमान है
ये शाख से परिन्द की पहली उड़ान है
जो चल पड़े हैं कश्ती-ए-मौजे-रवाँ लिए
चादर हवा की उनके लिए बादबान है
क़ुर्बत की साअतों में भी कुछ दूरियाँ-सी हैं
साया किसी का उन के मिरे दर्मियान है
आँखों में तिरे ख़्वाब न दिल में तिरा ख़याल
अब मेरी ज़िन्दगी कोई ख़ाली मकान है
'मख़्मूर' इस सफ़र में न साया तलाश कर
इन रास्तों पे धूप बहुत मेहरबान है
शब्दार्थ :
सहन=आँगन; सायबान=छप्पर; कश्ती-ए-मौजे-रवाँ=बहते हुए पानी की लहर की नाव; बादबान=पाल; क़ुर्बत=सामीप्य; साअतों=क्षणों।
चल पड़े हैं तो कहीं जाकर ठहरना होगा
चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा
रेत का ढेर थे हम, सोच लिया था हम ने
जब हवा तज़ चलेगी तो बिखरना होगा
हर नए मोड़ प' ये सोच क़दम रोकेगी
जाने अब कौन सी राहों से गुज़रना होगा
ले के उस पार न जाएगी जुदा राह कोई
भीड़ के साथ ही दलदल में उतरना होगा
ज़िन्दगी ख़ुद ही इक आज़ार है जिस्मो-जाँ का
जीने वालों को इसी रोग में मरना होगा
क़ातिले-शहर के मुख़बिर दरो-दीवार भी हैं
अब सितमगर उसे कहते हुए डरना होगा
आए हो उसकी अदालत में तो 'मख़्मूर' तुम्हें
अब किसी जुर्म का इक़रार तो करना होगा