रविवार, अगस्त 02, 2009

सामने ग़म की रहगुज़र आई

सामने ग़म की रहगुज़र आई

दूर तक रोशनी नज़र आई


परबतों पर रुके रहे बादल

वादियों में नदी उतर आई


दूरियों की कसक बढ़ाने को

साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई


दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया

शाम मेरे लहू में तर आई


मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी

ख़ुद गली चल के मेरे घर आई


आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी

अजनबी-अजनबी नज़र आई


हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे

एक आहट की रात भर आई


शब्दार्थ :

साअते-क़ुर्ब=सामीप्य का लक्षण; मुख़्तसर=संक्षिप्त; शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़।

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