रविवार, अगस्त 02, 2009

सुन सका कोई न जिस को वो सदा मेरी थी

सुन सका कोई न जिस को, वो सदा मेरी थी

मुन्फ़इल जिससे मैं रहता था, नवा मेरी थी


आख़िरे-शब के ठिठुरते हुए सन्नाटों से

नग़्मा बन कर जो उभरती थी, दुआ मेरी थी


खिलखिलाती हुई सुबहों का समाँ था उन का

ख़ून रोती हुई शामों की फ़िज़ा मेरी थी


मुद्दआ मेरा, इन अल्फ़ाज़ के दफ़्तर में न ढूँढ़

वही एक बात जो मैं कह न सका मेरी थी


मुंसिफे-शहर के दरबार में क्यूँ चलते हो

साहिबो मान गया मैं कि ख़ता मेरी थी


मुझ से बचकर वही चुपचाप सिधारा 'मख़्मूर'

हर तरफ़ जिस के तआक़ुब में सदा मेरी थी


शब्दार्थ :

मुन्फ़इल=लज्जित; नवा=आवाज़; आख़िरे-शब=रात का अन्तिम पहर; मुद्दआ=मंतव्य; मुंसिफ़े-शहर=नगर के न्यायाधीश; तआक़ुब=पीछा करना।

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