रविवार, अगस्त 02, 2009

सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में

सर पर जो सायबाँ थे पिघलते हैं धूप में

सब दम-ब-ख़ुद खड़े हुए जलते हैं धूप में


पहचानना किसी का किसी को, कठिन हुआ

चेहरे हज़ार रंग बदलते हैं धूप में


बादल जो हमसफ़र थे कहाँ खो गए कि हम

तन्हा सुलगती रेत प' जलते हैं धूप में


सूरज का क़हर टूट पड़ा है ज़मीन पर

मंज़र जो आसपास थे जलते हैं धूप में


पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें

सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में


'मख़्मूर' हम को साए-ए-अब्रे-रवाँ से क्या

सूरजमुखी के फूल हैं, पलते हैं धूप में


शब्दार्थ :

सायबाँ=छाया करने वाले; दम-ब-ख़ुद=मौन; क़हर=प्रकोप; सब्ज़=हरे-भरे; साए-ए-अब्रे-रवाँ=गतिशील बादल की छाया।

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