बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना|
था इस राह में आख़िर हमें ख़ुद भी बिखर जाना|
हवा के दोश पर बादल के टुकड़े की तरह हम हैं,
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना|
[दोश=कंधे]
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी,
जहाँ इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना|
पस-ए-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा,
इसी एक वहम को हम ने चिराग़-ए-रह्गुज़र जाना|
[पस-ए-ज़ुल्मत= अन्धेरे के आगे; मुन्तज़िर=इंतज़ार करता हुआ]
दयार-ए-ख़ामोशी से कोई रह-रह कर बुलाता है,
हमें "मख्मूर" एक दिन है इसी आवाज़ पर जाना|
[दयार-ए-ख़ामोशी=मौत का घर]
रविवार, अगस्त 02, 2009
बिखरते टूटते लम्हों को अपना समसफ़र जाना
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