ज़ख़्म को फूल तो सर सर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है क्या लोग हैं क्या कहते हैं
क्या क़यामत है के जिन के लिये रुक रुक के चले
अब वही लोग हमें आबलापा कहते हैं
कोई बतलाओ के इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तेफ़ाक़न कहीं मिल जाये तो क्या कहते हैं
ये भी अन्दाज़-ए-सुख़न है के जफ़ा को तेरी
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अन्दाज़-ओ-अदा कहते हैं
जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें
हम जिसे छू न सकें उस को ख़ुदा कहते हैं
क्या त'अज्जुब है के हम अह्ल-ए-तमन्ना को "फ़राज़"
वो जो महरूम-ए-तमन्ना हैं बुरा कहते हैं
मंगलवार, अप्रैल 14, 2009
ज़ख़्म को फूल तो सर को सबा कहते हैं/ फ़राज़
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