मंगलवार, अप्रैल 14, 2009

निराशावादी / रामधारी सिंह "दिनकर"

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास



उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।



क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,



लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।

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