मंगलवार, अप्रैल 14, 2009

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो / फ़राज़

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो
ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है के तुम हो



ये ख़्वाब है ख़ुश्बू है के झोंका है के पल है
ये धुंध है बादल है के साया है के तुम हो



इस दीद की सआत में कई रन्ग हैं लरज़ाँ
मैं हूँ के कोई और है दुनिया है के तुम हो



देखो ये किसी और की आँखें हैं के मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरा है के तुम हो



ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ कहीं ठहरे तो ये जानूँ
हर साँस में मुझको ये लगता है के तुम हो



हर बज़्म में मौज़ू-ए-सुख़न दिल ज़दगाँ का
अब कौन है शीरीं है के लैला है के तुम हो



इक दर्द का फैला हुआ सहरा है के मैं हूँ
इक मौज में आया हुआ दरिया है के तुम हो



वो वक़्त न आये के दिल-ए-ज़ार भी सोचे
इस शहर में तन्हा कोई हम सा है के तुम हो



आबाद हम आशुफ़्ता सरों से नहीं मक़्तल
ये रस्म अभी शहर में ज़िन्दा है के तुम हो



ऐ जान-ए-"फ़राज़" इतनी भी तौफ़ीक़ किसे थी
हमको ग़म-ए-हस्ती भी गवारा है के तुम हो

0 टिप्पणियाँ: