मंगलवार, अप्रैल 14, 2009

समर निंद्य है / रामधारी सिंह "दिनकर"

@@@समर निंद्य है....भाग 1


समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?



सुख-समृद्धि का विपुल कोष

संचित कर कल, बल, छल से,

किसी क्षुधित का ग्रास छीन,

धन लूट किसी निर्बल से।


सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।



हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त

अपना मुझको पीने दो,

अचल रहे साम्राज्य शान्ति का,

जियो और जीने दो।


सच है सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई ?



सुख का सम्यक-रूप विभाजन

जहाँ नीति से, नय से

संभव नहीं; अशान्ति दबी हो

जहाँ खड्ग के भय से,


जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;



नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के

जहाँ न आदर पायें;

जहाँ सत्य कहने वालों के

सीस उतारे जायें;


जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;



सहते-सहते अनय जहाँ

मर रहा मनुज का मन हो;

समझ कापुरुष अपने को

धिक्कार रहा जन-जन हो;


@@@समर निंद्य है....भाग 2



अहंकार के साथ घृणा का
जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिंगारी;



आगामी विस्फोट काल के

मुख पर दमक रहा हो;

इंगित में अंगार विवश

भावों के चमक रहा हो;


पढ़कर भी संकेत सजग हों
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;



कभी नये शोषण से, कभी

उपेक्षा, कभी दमन से,

अपमानों से कभी, कभी

शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।


दबे हुए आवेग वहाँ यदि
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें,



कहो कौन दायी होगा

उस दारुण जगद्दहन का

अहंकार या घृणा? कौन

दोषी होगा उस रण का ?


तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अंबर से?



अथवा अकस्मात मिट्टि से

फूटी थी यह ज्वाला ?

या मंत्रों के बल से जनमी

थी यह शिखा कराला ?


कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने ?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने ?



शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का

जब वर्जन करती है,

तभी जान लो, किसी समर का

वह सर्जन करती है।


शान्ति नहीं तब तक; जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।



ऐसी शान्ति राज्य करती है

तन पर नहीं हृदय पर,

नर के ऊँचे विश्वासों पर,

श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।


@@@समर निंद्य है....भाग 3


न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है
जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का
सुदृढ़ नहीं रह पाता।



कृत्रिम शान्ति सशंक आप

अपने से ही डरती है,

खड्ग छोड़ विश्वास किसी का

कभी नहीं करती है|


और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था
में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन -
सार, सिद्धि दुर्लभ है।



पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,

शोणित पी कर तन का,

जीती है यह शान्ति, दाह

समझो कुछ उनके मन का।


स्वत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?



न्यायोचित अधिकार माँगने

से न मिले, तो लड़ के,

तेजस्वी छीनते समर को

जीत, या कि खुद मर के।


किसने कहा पाप है समुचित
स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरना?



क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल

की दे वृथा दुहाई,

धर्मराज व्यंजित करते तुम

मानव की कदराई।


हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।



मन:शक्ति प्यारी थी तुमको

यदि पौरुष ज्वलन से,

लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?

फिर आये क्यों वन से?


पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी।



क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,

सबका लिया सहारा;

पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे

कहो, कहाँ कब हारा?


@@@समर निंद्य है....भाग 4


क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।



अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है,

पौरुष का आतक मनुज

कोमल हो कर खोता है।


क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दंतहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो?



तीन दिवस तक पथ माँगते

रघुपति सिन्धु-किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छंद

अनुनय के प्यारे-प्यारे।


उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।



सिन्धु देह धर "त्राहि-त्राहि"

करता आ गिरा शरण में,

चरण पूज, दासता ग्रहण की,

बँधा मूढ़ बंधन में।


सच पूछो तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।



सहनशील क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है,

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है।


जहाँ नहीं सामर्थ्य शोढ की,
क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का
मिस है, वाणी का छल है।



फलक क्षमा का ओढ़ छिपाते

जो अपनी कायरता,

वे क्या जानें प्रज्वलित-प्राण

नर की पौरुष-निर्भरता?


वे क्या जाने नर में वह क्या
असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से
सिर तक उठता बल है?



@@@समर निंद्य है....भाग 5


जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,


जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;

शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,


चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,


ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;

जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,


बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का


युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि


वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?

वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या


वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?

वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या


वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?

कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !


या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?


पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,


पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।

शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,


युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;

सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,


ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;

पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,


ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।


भूल रहे हो धर्मराज, तुम

अभी हिंस्र भूतल है,

खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,

खड़ा चतुर्दिक छल है।


मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।



जियें मनुज किस भाँति परस्पर

हो कर भाई-भाई

कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,

कैसे रुके लड़ाई।


पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।



बहे प्रेम की धार, मनुज को

वह अनवरत भिगोये,

एक दूसरे के उर में नर

बीज प्रेम के बोये।


किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।



भूले-भटके ही पृथ्वी पर

वह आदर्श उतरता,

किसी युधिष्ठिर के प्राणों में

ही स्वरूप है धरता।


किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;



घृणा, कलह, विद्वेष, विविध

तापों से आकुल हो कर,

हो जाता उड्डीन एक-दो

का ही हृदय भिगो कर।


@@@समर निंद्य है....भाग 6


जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,


जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;

शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,


चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,


ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;

जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,


बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का


युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि


वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?

वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या


वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?

वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या


वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?

कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !


या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?


पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,


पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।

शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,


युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;

सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,


ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;

पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,


ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।


भूल रहे हो धर्मराज, तुम

अभी हिंस्र भूतल है,

खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,

खड़ा चतुर्दिक छल है।


मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।



जियें मनुज किस भाँति परस्पर

हो कर भाई-भाई

कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,

कैसे रुके लड़ाई।


पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।



बहे प्रेम की धार, मनुज को

वह अनवरत भिगोये,

एक दूसरे के उर में नर

बीज प्रेम के बोये।


किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।



भूले-भटके ही पृथ्वी पर

वह आदर्श उतरता,

किसी युधिष्ठिर के प्राणों में

ही स्वरूप है धरता।


किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;



घृणा, कलह, विद्वेष, विविध

तापों से आकुल हो कर,

हो जाता उड्डीन एक-दो

का ही हृदय भिगो कर।

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