ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण:
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह-”पित:, पूर्ण आलोक वरण
करती हूं मै, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण-तरण”-
अशब्द अधरों का,सुना, भाष,
मैं कवि हूं,पाया है प्रकाश
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते,शत-शर-जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गयी स्वर्ग, क्या यह विचार-
“जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति,तब मैं सक्षम,
तारूंगी कर गह दुस्तर तम?”
कहता तेरा प्रयाण सविनय,-
कोई न अन्य था भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा कर गयी पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित कर न सका!
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
शुचिते,पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख सका न वे दृग विपन्न:
अपने आंसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार-बार-
“यह हिंदी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी भास्वर
वह रत्नहार-लोकोत्तर वर।”
अन्यथा, जहां है भाव शुद्ध
साहित्य, कला- कौशल -प्रबुद्ध,
हैं दिये हुये मेरे प्रमाण
कुछ वहां,प्राप्ति को समाधान,-
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त-
देखें वे; हंसते हुये प्रवर
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तले तूर्ण,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर-क्षेप वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्द युद्ध का रुद्ध-कण्ठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन जीवन का रवि,
लेकर कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांक्षित छवि पर
फेरती स्नेह की कूची भर!
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आंसुऒं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
प्राणों की प्राणों में दबकर
कहती लघु-लघु उसांस में भर:
समझता हुआ मैं रहा देख
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल,
पहचान रही ज्ञान में चपल,
मां का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण,
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गयी चली,
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खायी भाई की मार विकल
रोयी, उत्पल-दल-दृग छलछल;
चुमकारा फिर उसने निहार,
फिर गंगा तट सैकत विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर हाथ चली चपला;
आंसुओं धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध गति मुक्त छन्द,
पर सम्पादकगण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर
रो एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी रचना लेकर उदास
ताकता रहा मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोचता हुआ घास
अज्ञात फ़ेकता इधर-उधर
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।
याद है, दिवस की प्रथम धूप
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास से चल
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक
देखने के लिए अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आंगन में फ़ाटक के भीतर
मोढ़े पर, ले कुण्डली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह
हंसता था, मन में बढ़ी चाह
खण्डित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
इससे पहले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे, जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढ़ी-लिखी हो-सुन्दर हो।
आये ऎसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैने सविनय
सबको, जो अड़े प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर-
“मैं हूं मंगली”,मुड़े सुनकर।
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पड़ी अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उन नयनों का, सासु ने कहा-
“वे बड़े भले जन है, भय्या,
एन्ट्रेंन्स पास है लड़की वह,
बोले मुझसे, ‘छब्बिस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।
फ़िर हाथ जोड़ने लगे, कहा-
‘वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन !
अच्छे कवि, अच्छे विद्दज्जन!
है बड़े नाम उनके! शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।’
आयेंगे कल।” दृष्टि थी शिथिल,
आयी पुतली तू खिल-खिल-खिल
हंसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुण्डली दिखा बोला-”ए-लो”
आयी तू, दिया, कहा, “खेलो!”
कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य - स्मित सुवेश
आयी करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीज,
संकेत किये मैंने अखिन्न
जिस ओर कुण्डली छिन्न-भन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी सच्चित टुकड़ों पर।
धीरे-धीरे फ़िर बढ़ा चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारूण्य सुधर
आयी, लावण्य-भार थर-थर
कांपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकौश नव वीणा पर :
नैश स्वप्न ज्यों तू मन्द-मन्द
फ़ूटी ऊषा जागरण-छन्द,
कांपी भर निज आलोक-भार,
कांपी वन, कांपा दिक प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी,द्रुम,कलि, किसलय-दल।
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धर
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील-नील,
पर बंधा देह के दिव्य बांध,
छलकता दृगों से साध-साध।
फूटा कैसा प्रिय कण्ठ-स्वर
मां की मधुरिमा व्यंज्जना भर
हर पिता-कण्ठ की दृप्त धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वहिन
साकार हुई दृष्टि में सुधर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,।
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुज्ज सज हिला कुंज
तरू-पल्लव कलि-दल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश-मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस:-
“भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोतर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढ़कर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होगें सहाय हम सहोत्साह।
सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा,-न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे, कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत वार वार-
“ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलाड्गार;
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फ़ल,
यह दग्ध मरूस्थल-नहीं सुजल।”
फ़िर सोचा-”मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूं अछम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द-बन्ध की, निराधार।
वे जो जमुना के-से कछार
पद फ़टे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गन्ध,
उन चरणों को मैं यथा अन्ध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऎसी नहीं शक्ति।
ऎसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।”
फ़िर आयी याद-मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्धज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय। बंध गया भाव,
खुल गया ह्रदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफ़ुल्ल,चेतन।
बोला मैं-”मैं हूं रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त-
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूं अर्पण
यदि महाजनों को, तो विवाह
कर सकता हूं, पर नहीं चाह
मेरी ऎसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं, यह नहीं सुधर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय
मैं करूं, नही ऎसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मन्त्र
यदि पण्डितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।”
आये पण्डितजी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक, ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू, हंसी मन्द,
होठों में बिजली फ़ंसी, स्पन्द
उर में भर झूली छबि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,
नत नयनो से आलोक उतर
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त प्रथम गीति-
श्रंगार, रहा जो निराकार
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिय-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
मां की कुल शिक्षा मैने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में-”वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फ़िर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त;
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहां कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अन्त भी उसी गोद में शरण
ली मूंद दृग वर महामरण!
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज, जो नही कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
मंगलवार, अप्रैल 14, 2009
सरोज स्मृति - सूर्यकान्त त्रिपाठी’निराला’
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