मंगलवार, मई 12, 2009

नीरज दोहावली

1

हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।


2

हे लम्बोदर है तुम्हें, बारंबार प्रणाम
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।


3

मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।



4

गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार।


5

मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।


6

शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।


7

मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।


8

स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।


9

गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।



10

नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।



11

मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म।


12

भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम


13

तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।


14

मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।


15

अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।


16

जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।


17

हमने इक परिवार ही, माना सब संसार
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।


18

आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।


19

दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।


20

निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।


21

गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।


22

जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।


23

झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।


24

दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।


25

ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।



26

प्रलय हुई जब-जब हुई, गीतों की लय वक्र
सदा गीत की लय रही, सकल सृष्टि का चक्र।


27

सरि-सागर-अम्बर-अवनि, सब लय से गतिमान
लय टूटे जब प्राण की, हो जीवन अवसान।


28

अपनी भाषा के बिना, राष्ट्र न बनता राष्ट्र
वसे वहाँ महाराष्ट्र या, रहे वहाँ सौराष्ट्र।


29

हिन्दी विन्दी भाल की, उर्दू कुण्डल केश
जब ये दोनों ही सजें, सुन्दर दीखे देश।


30

गीत वही है सुन जिसे, झूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।


31

बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।


32

अन्तिम घर संसार में, है सबका शमशान
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।


33

जो आए ठहरे यहाँ, थे न यहाँ के लोग
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संयोग।


34

रुके नहीं कोई यहाँ, नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम।


35

रोते-रोते जायँ सब, हँसता जाय न कोय
हँसता-हँसता जाय तो, उसका जनम न होय।


36

मिटती नहीं सुगंध रे ! भले झरें सब फूल
यही सार अस्तित्व का, यही ज्ञान का मूल।


37

फल तेरे हाथों नहीं, कर्म है तेरे हाथ
करता चल सत्कर्म तू, सोच न फल की बात।


38

तन तो एक सराय है, आत्मा है मेहमान
तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।


39

है गिरने को ही बना, तन का सुन्दर कोट
देख काल है कर रहा, पल-पल इस पर चोट।


40

श्वेत-श्याम दो रंग के, चूहे हैं दिन-रात
तन की चादर कुतरते, पल-पल रहकर साथ।


41

बिखरी तो रचना बनी, एक नवीना सृष्टि
सिमटी जब इक बिन्दु में, वही बन गई व्यष्टि।


42 प्रेय-श्रेय के मध्य है, बस इक झीना तार
प्रेम-वासना मोक्ष सब, हैं इसके व्यापार।


43

लोभ न जाने दान को, क्रोध न जाने ज्ञान
हो दोनों से मुक्ति जब, हो अपनी पहचान।


44

चलती चाकी काल की, पिसे सकल संसार,
लिपट गए जो मूठ से, पिसे न एकहु बार।*


45

धन तो साधन मात्र है, नहीं मनुज का ध्येय
ध्येय बनेगा धन अगर, जीवन होगा हेय।


46

जिस कारण कंदील ये, धरे अनेकों रूप
स्थिर रहती ज्योति वो, हर दम एक स्वरूप।


47

धरती घूमे कील पर, घूमे किन्तु न कील
ब्रह्म ज्योति सम थिर सदा, माया सम कंदील।


48

हस्ताक्षर तेरे स्वयम्, भाग्य-नियति के लेख
औरों को मत दोष दे, अपने अवगुण देख।


49

मिट्टी का विस्तार है, ये सारा संसार
मिट्टी को मत खूँद रे, कर तू इससे प्यार


50

मिट्टी तो मिटती नहीं, बदले केवल रूप
कभी बने ये कोयला, हीरा कभी अनूप।


51

दृष्टा दृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।


52

गति-यति का ही नाम है, जनम-मरण का खेल
चलती-रुकती, दौड़ती, जैसे कोई रेल।


53

तन तो ये साकेत है, और हृदय है राम
श्वास-श्वास में गूँजता, पल-पल उसका नाम।

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