मंगलवार, मई 12, 2009

बन्द करो मधु की रस-बतियां

बहुत दिनों तक हुआ प्रणय का रास वासना के आंगन में,
बहुत दिनों तक चला तृप्ति-व्यापार तृषा के अवगुण्ठन में,
अधरों पर धर अधर बहुत दिन तक सोई बेहोश जवानी,
बहुत दिनों तक बंधी रही गति नागपाश से आलिंगन में,
आज किन्तु जब जीवन का कटु सत्य मुझे ललकार रहा है
कैसे हिले नहीं सिंहासन मेरे चिर उन्नत यौवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥



मेरी क्या मजाल थी जो मैं मधु में निज अस्तित्व डुबाता,
जग के पाप और पुण्यों की सीमा से ऊपर उठ जाता,
किसी अदृश्य शक्ति की ही यह सजल प्रेरणा थी अन्तर में,
प्रेरित हो जिससे मेरा व्यक्तित्व बना खुद का निर्माता,
जीवन का जो भी पग उठता गिरता है जाने-जनजाने,
वह उत्तर है केवल मन के प्रेरित-भाव-अभाव-प्रश्न का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥



जिसने दे मधु मुझे बनाया था पीने का चिर अभ्यासी,
आज वही विष दे मुझको देखता कि तृष्णा कितनी प्यासी,
करता हूं इनकार अगर तो लज्जित मानवता होती है,
अस्तु मुझे पीना ही होगा विष बनकर विष का विश्वासी,
और अगर है प्यास प्रबल, विश्वास अटल तो यह निश्चित है
कालकूट ही यह देगा शुभ स्थान मुझे शिव के आसन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥



आज पिया जब विष तब मैंने स्वाद सही मधु का पाया है,
नीलकंठ बनकर ही जग में सत्य हमेशा मुस्काया है,
सच तो यह है मधु-विष दोनों एक तत्व के भिन्न नाम दो
धर कर विष का रूप, बहुत संभव है, फिर मधु ही आया है,
जो मुख मुझे चाहिए था जब मिला वही एकाकीपन में
फिर लूं क्यों एहसान व्यर्थ मैं साकी की चंचल चितवन का।
बन्द करो मधु की रस-बतियां, जाग उठा अब विष जीवन का॥

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