मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
हवा सबके लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती
न जाने कब कहाँ पर कोई तुमसे ख़ूँ बहा माँगे
बदन में ख़ून की इतनी कमी अच्छी नहीं होती
ये हम भी जानते हैं ओढ़ने में लुत्फ़ आता है
मगर सुनते हैं चादर रेशमी अच्छी नहीं होती
ग़ज़ल तो प्फूल -से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है
ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती
‘मुनव्वर’ माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ दीवार हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
रविवार, मई 17, 2009
मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें