एक दिन मैंने कहा यूँ दीप से
‘‘तू धरा पर सूर्य का अवतार है,
किसलिए फिर स्नेह बिन मेरे बता
तू न कुछ, बस धूल-कण निस्सार है ?’’
लौ रही चुप, दीप ही बोला मगर
‘‘बात करना तक तुझे आता नहीं,
सत्य है सिर पर चढ़ा जब दर्प हो
आँख का परदा उधर पाता नहीं।
मूढ़ ! खिलता फूल यदि निज गंध से
मालियों का नाम फिर चलता कहाँ ?
मैं स्वयं ही आग से जलता अगर
ज्योति का गौरव तुझे मिलता कहाँ ?’’
मंगलवार, मई 12, 2009
दीप और मनुष्य
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें