कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता
मंगलवार, अप्रैल 28, 2009
कोई काँटा चुभा नहीं होता / बशीर बद्र
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2 टिप्पणियाँ:
वाह कमाल की ग़ज़ल बशीर साहब की पहले भी कई बार पढ़ी है अब फिर ताज़ा हो गई ? वाह!
I am delighted
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