मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते / बशीर बद्र

होठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते

पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते

दिल उजड़ी हुई इक सराये की तरह है
अब लोग यहाँ रात जगाने नहीं आते

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते

अहबाब[१] भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते

शब्दार्थ:

↑ दोस्त, मित्र

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