बेचारे मुफ़लिस का चेहरा फटी हुई पुस्तक-सा
उसका है अस्तित्व द्वार पर गिरी पड़ी दस्तक -सा
भैया सच्ची बात किसी को कौन कहे इस युग में
झूठ तो शक्कर जैसा मीठा सच लगता अदरक-सा
बड़े लोग थे डाल के जूते आ बैठे मन्दिर में
और पुजारी दीन-हीन था खड़ा रहा दर्शक-सा
पलकों की तो बात ज़रा भी नहीं मानता यारो
मेरी आँखों का पानी है इक ज़िद्दी बालक -सा
नंगे पाँव रास्ता लम्बा,प्यास बड़ी निर्मोही
ऐसे में आ खड़ा है सूरज सिर पर खलनायक -सा
पपलू फ़्लैश,तम्बोला,रम्मी,पीना और पिलाना
लोग शहर के ख़ुशियों का यूँ करते हैं नाटक-सा.
सोमवार, मार्च 08, 2010
बेचारे मुफ़लिस का चेहरा फटी हुई पुस्तक-सा
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