हर आदमी है यहाँ दर्द का स्कूल कोई
जो हो सके तो उगाना ख़ुशी के फूल कोई
तुम अपने घर में चराग़ों की ख़ुद करो रक्षा
कि आँधियों का तो होता नहीं उसूल कोई
सभी के वर्क चढ़े जश्न बिक गये यारो
मेरी ख़ामोशियाँ करता नहीं कबूल कोई
थीं जिसको आदतें कालीन रख के चलने की
गिरा वो अन्त में जैसे हो पथ की धूल कोई
कुछ इस तरह मुझे लगता है साँझ का सूरज
सुहाग सेज पे जैसे पड़ा हो फूल कोई
सोमवार, मार्च 08, 2010
हर आदमी है यहाँ दर्द का स्कूल कोई
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