जलेगा दीया तो सँवर जाएगा
लुटा कर उजाले बिखर जाएगा
बयाँ क्या करूँ बुलबुले का सफ़र
हँसेगा ज़रा और मर जाएगा
है शीशा तो गल जाएगा आग में
है सोना तो तप कर निखर जाएगा
गुलेलें हैं हर शख़्स के हाथ में
कि बचकर परिन्दा किधर जाएगा
तेरे वारदातों के इस शहर में
मेरा गाँव आया तो डर जाएगा
परिन्दा, हवा, धूप या चाँदनी
कोई उस कुएँ में उतर जाएगा
समय का है रथ पारदर्शी बड़ा
पता न चलेगा गुज़र जाएगा
वो रस्ता है तो जाएगा दूर तक
है आँगन तो घर में ठहर जाएगा.
सोमवार, मार्च 08, 2010
जलेगा दीया तो सँवर जाएगा
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