सोमवार, मार्च 15, 2010

दिल को ग़म-ए-हयात गवारा है इन दिनों

दिल को ग़म-ए-हयात[1] गवारा है इन दिनों
पहले जो दर्द था वही चारा है इन दिनों

हर सैल-ए-अश्क़[2] साहिल-ए-तस्कीं[3] है आजकल
दरिया की मौज-मौज किनारा है इन दिनों

यह दिल ज़रा-सा दिल तेरी आँखों में खो गया
ज़र्रे को आँधियों का सहारा है इन दिनों

शम्मओं में अब नहीं है वो पहली-सी रौशनी
शायद वो चाँद अंजुमन-आरा[4] है इन दिनों

तुम आ सको तो शब को बढ़ा दूँ कुछ और भी
अपने कहे में सुबह का तारा है इन दिनों

क़ुर्बां [5]हों जिसके हुस्न पे सौ जन्नतें ‘क़तील’
नज़रों के सामने वो नज़्ज़ारा है इन दिनों
शब्दार्थ:

↑ जीवन का दुख
↑ आँसुओं की बाढ़
↑ संतोष का तट
↑ सभा की शोभा बढ़ाने वाला
↑ भेंट

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