नामाबर[1] अपना हवाओं को बनाने वाले
अब न आएँगे पलट कर कभी जाने वाले
क्या मिलेगा तुझे बिखरे हुए ख़्वाबों के सिवा
रेत पर चाँद की तसवीर बनाने वाले
मैक़दे बन्द हुए ढूँढ रहा हूँ तुझको
तू कहाँ है मुझे आँखों से पिलाने वाले
काश ले जाते कभी माँग के आँखें मेरी
ये मुसव्विर तेरी तसवीर बनाने वाले
तू इस अन्दाज़ में कुछ और हसीं लगता है
मुझसे मुँह फेर के ग़ज़लें मेरी गाने वाले
सबने पहना था बड़े शौक़ से काग़ज़ का लिबास
जिस क़दर लोग थे बारिश में नहाने वाले
छत बना देते हैं अब रेत की दीवारों पर
कितने ग़ाफ़िल[2] हैं नये शहर बसाने वाले
अद्ल [3]की तुम न हमें आस दिलाओ कि यहाँ
क़त्ल हो जाते है ज़जीर हिलाने वाले
किसको होगी यहाँ तौफ़ीक़-ए-अना[4] मेरे बाद
कुछ तो सोचें मुझे सूली पे चढ़ाने वाले
मर गये हम तो ये क़त्बे पे लिखा जाएगा
सो गये आप ज़माने को जगाने वाले
दर-ओ-दीवार पे हसरत-सी बरसती है क़तील
जाने किस देस गये प्यार निभाने वाले.
शब्दार्थ:
↑ पत्रवाहक
↑ अज्ञानी
↑ इन्साफ़
↑ अह्म का सामर्थ्य
सोमवार, मार्च 15, 2010
नामाबर अपना हवाओं को बनाने वाले
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें