ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ|
उस को ढूँढें तो वो मिले भी कहाँ|
ख़ेमा-ख़ेमा गुज़ार ले ये शब,
सुबह-दम ये क़ाफिले भी कहाँ|
अब त'मुल न कर दिल-ए- ख़ुदकाम,
रूठ ले फिर ये सिलसिले भी कहाँ|
आओ आपस में कुछ गिले कर लें,
वर्ना यूँ है के फिर गिले भी कहाँ|
ख़ुश हो सीने की इन ख़राशों पर,
फिर तनफ़्फ़ुस के ये सिले भी कहाँ|
सोमवार, मार्च 15, 2010
ख़ुद से हम इक नफ़स हिले भी कहाँ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें