सोमवार, मार्च 15, 2010

हर बेज़ुबाँ को शोला-नवा कह लिया करो

हर बेज़ुबाँ को शोला-नवा[1] कह लिया करो
यारो, सुकूत[2] ही को सदा[3] कह लिया करो

ख़ुद को फ़रेब दो कि न हो तल्ख़ ज़िन्दगी
हर संगदिल को जाने-वफ़ा कह लिया करो

गर चाहते हो ख़ुश रहें कुछ बंदगाने-ख़ास[4]
जितने सनम हैं उनको ख़ुदा कह लिया करो

यारो ये दौर ज़ौफ़-ए-बसारत[5] का दौर है
आँधी उठे तो उसको घटा कह लिया करो

इंसान का अगर क़द-ओ-क़ामत[6] न बढ़ सके
तुम उसको नुक़्स-ए-आब-ओ-हवा[7]कह लिया करो

अपने लिए अब एक ही राह-ए-नजात[8] है
हर ज़ुल्म को रज़ा-ए-ख़ुदा[9] कह लिया करो

दिखलाए जा सकें जो न काँटे ज़ुबान के
तुम दास्तान-ए-कर्ब-ओ-बला[10] कह लिया करो

ले-दे के अब यही है निशान-ए-ज़िया[11] क़तील
जब दिल जले तो उसको दिया कह लिया करो
शब्दार्थ:

↑ जिसकी आवाज़ में आग हो
↑ मौन
↑ आवाज़
↑ विशेष उपासक
↑ दृष्टि की कमज़ोरी
↑ डील-डौल
↑ जलवायु का दोष
↑ मुक्ति का रास्ता
↑ ईश्वरेच्छा
↑ दुखों की कहानी
↑ प्रकाश का चिह्न

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