जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका|
ग़म में कभी सुकून-ए-रफ़ाक़त न दे सका|
जब मेरे सारे चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं|
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं|
फिर मुझे चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
तन्हा कराहाने का तुम्हें कोई हक़ नहीं|
सोमवार, मार्च 15, 2010
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मुहब्बत न दे सका
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें