शुक्रवार, मई 29, 2009

तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस जख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा




इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश

फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा




यक लख्त गिरा है तो जड़े तक निकल आईं

जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा




काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली

तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा




किस तर्ह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर

वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

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