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स्याह...
शुक्रवार, मई 29, 2009
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश
दाने तक जब पहुँची चिड़िया
जाल में थी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया ।
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लम्बी चुप का नतीजा
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं
ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में
नींद से आगे की मंज़िल
बदन के आस-पास
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
सबसे जुदा हूँ मैं भी, अलग तू भी सबसे है
जो मंज़र देखने वाली हैं आँखें रोने वाला है
सुनो ख़ुश-बख़्त लोगो! लम्हए-नायाब आया है
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
बुझने के बाद जलना गवारा नहीं किया
इसे गुनाह कहें या सवाब का काम
जो कहते हैं कहीं दरिया नहीं है
तमाम शह्र में जिस अजनबी का चर्चा है
बुरा अब हो गया अच्छा कैसे
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
दिल में तूफ़ान है
मुग़्नी तबस्सुम के लिए
ख़्वाब का दर बंद है.
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
यार को मैंने मुझे यार ने सोने न दिया
दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ
तड़पते हैं न रोते हैं
हमारे दरमियाँ
हमने ही लौटने का
सुंदर कोमल सपनों की बारात
सब्ज़ मद्धम रोशनी में
शाम आयी तेरी यादों के
वो तो ख़ुशबू है
वो कैसी कहां की ज़िन्दगी थी
वह बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
रुकने का समय गुज़र गया है
यासिर अराफ़ात के लिए
मुश्किल है अब शहर में
मंज़र है वही ठठक रही हूँ
बारिश
बारिश हुई तो
बाद मुद्दत उसे देखा
बादबाँ खुलने से पहले का
बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है
बख़्त से कोई शिकायत है ना अफ्लाक से है
प्यार
पूरा दुख और आधा चांद
पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाख़ों में
पा-बा-गिल सब हें
दुआ
दिल पे एक तरफ़ा क़यामत करना
दिल का क्या है वो तो चाहेगा
दश्त-ए-शब पर दिखाई क्या देंगी
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
तुम्हारी ज़िन्दगी में
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
टूटी है मेरी नींद
जुस्तजू खोये हुओं की
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश
ज़िद
छोटी नज़्म
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
चिड़िया
चारासाजों की अज़ीयत
गुमान
खुलेगी इस नज़र पे
खुली आँखों में
ख़ुश्बू है वो तो
कू-ब-कू फैल गई बात
कुछ फ़ैसला तो हो
कुछ तो हवा भी सर्द थी
कुछ ख़बर लायी तो है
कायनात के ख़ालिक
कायनात के ख़ालिक
करिया-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आये
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
एक मंज़र
एक पैग़ाम
एक दफ़नाई हुई आवाज़
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
उस वक़्त
उसने फूल भेजे हैं
उसके मसीहा के लिए
उलझन
इसी में ख़ुश हूँ
अब कौन से मौसम से
अपनी रुसवाई तेरे नाम
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात
अक़्स-ए-खुशबू हूँ
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