सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
ज़ेरे ज़मीं से आता है गुल हर सू ज़र-ए-बकफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया खज़ाना क्या
चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना खाना क्या
तिब्ल-ओ-अलम न पास है अपने न मुल्क-ओ-माल
हम से खिलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह मेरी क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
तिरछी निगह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़ेगा उड़ेगा निशाना क्या?
बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-अज़ीम
महमाँ साराय-ए-जिस्म का होगा रवना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तू न दे
आतिश ग़ज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या?
शुक्रवार, मई 29, 2009
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
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