शनिवार, मई 02, 2009

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है

सकूत-ए-शाम मिटाओ बहुत अंधेरा है
सुख़न की शमा जलाओ बहुत अंधेरा है

दयार-ए-ग़म में दिल-ए-बेक़रार छूट गया
सम्भल के ढूढने जाओ बहुत अंधेरा है

ये रात वो के सूझे जहाँ न हाथ को हाथ
ख़यालो दूर न जाओ बहुत अंधेरा है

लटों को चेहरे पे डाले वो सो रहा है कहीं
ज़या-ए-रुख़ को चुराओ बहुत अंधेरा है

हवाए नीम शबी हों कि चादर-ए-अंजुम
नक़ आब रुख़ से उठाओ बहुत अंधेरा है

शब-ए-सियाह में गुम हो गई है राह-ए-हयात
क़दम सम्भल के उठाओ बहुत अंधेरा है

गुज़श्ता अह्द की यादों को फिर करो ताज़ा
बुझे चिराग़ जलाओ बहुत अंधेरा है

थी एक उचकती हुई नींद ज़िंदगी उसकी
'फ़िराख़' को न जगाओ बहुत अंधेरा है

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