शनिवार, मई 02, 2009

क्यों तेरे ग़म-ए-हिज्र में

क्यों तेरे ग़म-ए-हिज्र में नमनाक हिं पलकें
क्योंकि याद तेरी आते ही तारे निकल आए

बरसात की इस रात में ए दोस्त तेरी याद
इक तेज़ छुरी है जो उतरती ही चली जाए

कुछ एसी भी गुज़री हैं तेरे हिज्र में रातें
दिल दर्द से ख़ाली हो मगर नींद न आए

शायर हैं फ़िराक़ आप बड़े पाए के लेकिन
रक्खा है अजब नाम के जो रास न आए

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