शनिवार, मई 02, 2009

ज़िन्दगी तुझ को जिया है

ज़िन्दगी तुझ को जिया है कोई अफ़सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैनें पिया है कोई अफ़सोस नहीं



मैनें मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़सोस नहीं



मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़सोस नहीं



अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर'
अब कफ़न ओड़ लिया है कोई अफ़सोस नहीं

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