है अब तो कुछ सुख़न२ का मेरे कारोबार बंद ।
रहती है तबअ३ सोच में लैलो निहार४ बंद ।
दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।
हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।
जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ।।1।।
बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी६ ।
कोठे को छत नहीं हैं यह छाई हैं मुफ़्लिसी ।
दीवारो दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।
हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।
पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ।।2।।
कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।
लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।
फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।
उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।
गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ।।3।।
दुनिया में अब क़दीम७ से है ज़र८ का बन्दोबस्त९ ।
और बेज़री१० में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।
आक़ा११ का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।
मुफ़्लिस१२ जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।
मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार१३ बंद ।।4।।
कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।
ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।
रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।
खँखार१४ जागने का, न मुतलक़१५ असर रहा ।
आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ।।5।।
अब आगरे में जितने हैं सब लोग है तबाह ।
आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।
माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।
वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।
कस्बो१६ हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ।।6।।
सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।
देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।
बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।
बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।
जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ।
सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह।।7।।
बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।
दल्लाल को है याफ़्त१८, न बाज़ारी को फ़लाह ।
दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।
याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ।।8।।
मारें है हाथ पे सब यां के दस्तकार ।
और जितने पेशावर१९ हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।
कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।
कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।
छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ।।9।।
ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक२० गए ।
और रेशमी क़िवाम२१ भी यकसर चिपक(१) गए ।
ज़रदार उठ गए तो बटैये२२ सरक गए ।
चलने से काम तारकशों२३ के भी थक गए ।
क्या हाल खींचे जो हो जाए तार बंद ।।10।।
बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।
जलते हैं नानबाई२४ तो भड़भूजे२५ भुनते हैं ।
धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।
रोते हैं वह जो मशरुओ२६ दाराई२७ बुनते हैं ।
और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ।।11।।
बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो,
रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो,
कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू,
यां तक तो मुफ़लिसी है कि क़स्बी का रात को,
दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद।
जब आगरे की ख़ल्क़ का है रोज़गार बंद ।।12।।
गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।
मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।
रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।
याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।
काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ।।13।।
लूटे हैं गरदो पेश१८ जो क़्ज्ज़ाक२९ राह मार ।
व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार३० ।
कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।
मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।
नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ।।14।।
हर दम कमां गरों३१ के ऊपर पेचो ताब हैं ।
सहोफ़े३२ अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।
मरते हैं मीनाकार मुसव्विर३३ कबाव हैं ।
नक़्क़ास३४ इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।
रंगो क़लम के होगए नक़्शों निगार३५ बंद ।।15।।
बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।
मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।
जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।
लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।
जाते हैं कर (१) दुकान को आख़िर वह हार बंद ।।16।।
हज्ज़ाम३६ पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।
पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।
कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।
क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।
याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ।।17।।
डमरू(२) बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।
आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।
मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आघार ।
जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।
क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ।।18।।
लज़्ज़त३७ है ज़िक्रो हुस्न३८ के नक़्शो निगार३९ से ।
महबूब है जो गुन्चे दहन४० गुल इज़ार४१ से ।
आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।
कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।
ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ।।19।।
फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार४२ ।
घोड़ों की (१) हैं लगाम न ऊंटों के है महार४३ ।
कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।
यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।
जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ।।20।।
कोई पुकारता है पड़ा ‘भेज’ या ‘ख़ुदा’ ।
अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।
कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।
ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।
क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार४४ बंद ।।21।।
मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आए ।
बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।
देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।
आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।
दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ।।22।।
आमद४५ न ख़ादिमों४६ के तईं मक़बरों४७ के बीच ।
बाम्हन(१) भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।
आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।
हैरां हैं पीरज़ादे४८ भी अपने घरों के बीच ।
नज़रों नियाज़४९ हो गई सब एक बार बंद ।।23।।
इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।
जिस घर पे जा-जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।
भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।
वाँ से सदा५० यह आती है ‘फिर माँगो’ जब तो आह ।
करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ।।24।।
क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब५१
रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़५२ हैं सब ग़रीब ।
होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।
उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब५३ ।
क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ।।25।।
किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।
अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।
जो खाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।
यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।
सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ।।26।।
क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।
मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।
याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।
जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।
बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ।।।27।।
है जिन सिपाहियों कने५९ बन्दूक और सनां६० ।
कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।
चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।
लाचार अपनी रोज़ी का बाअस६१ समझ के हां ।
रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ।।28।।
जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन६२ को गिरूं६३ रखें ।
या तेग और सिपर१४ को लिए चौक में फिरें ।
पटका६४ जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।
वह (१) पेश कबुज६६ बिक के पड़े रोटी पेट में ।
फिर उसका कौन मोल ले वह लच्चेदार बंद ।।29।।
जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।
दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर६७ गए ।
हथियार बेच होके गदा६८ घर ब घर गए ।
जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर६९ गए ।
िर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ।।30।।
ऐसा सिपाह७० मद का दुश्मन ज़माना है ।
रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।
तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।
प्यादे७१ दिबाल(२) बंद७२ का फिर क्या ठिकाना है ।
दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद७३ ।।31।।
जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।
सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।
किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।
रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।
ऐसी हवा कुछ आरे हुई एक बार बंद ।।32।।
है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी७४ नहीं ।
वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी७५ नहीं ।
हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी७६ नहीं ।
अब आगरे में नाम को आसूदंगी नहीं ।
कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार७७ बंद ।।33।।
हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।
काँटे का नाम उनमें नहीं(१) फूल दरकिनार७८ ।
सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने७९ मेवादार ।
क्यारी में ख़ाक धूल, रविश८० पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।
ऐसी ख़िजां८१ के हाथों हुई है बहार८२ बंद ।।34।।
देखे कोई चमन तो पड़ा उजाड़ सा ।
गुंचा८३ न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।
आवाज़ कुमारियों८४ की, न बुलबुल की है सदा।
न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।
चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार८५ बंद ।।35।।
बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।
फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।
होता है बाग़बां८७ से, हर एख बाग़ का निबाह ।
वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।
जिसका न बाग़वां हो, न मालिक न ख़ार बंद८८ ।।36।।
क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।
जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।
जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।
सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।
तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ।।37।।
है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।
कर(१) आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।
सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।
इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।
खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ।।38।।
आशिक़ कहो, असीर९० कहो, आगरे का है ।
मुल्ला कहो, दबीर९१ कहो, आगरे का ।
मुफ़्लिस९२ कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।
इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ।।39।।
शनिवार, मई 02, 2009
शहरे आशोब / नज़ीर अकबराबादी
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