जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ
रोटी से जिस का नाक तलक पेट है भरा
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया
ठठ्ठा हँसी शराब सनम साक़ी इस सिवा
सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ
जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हज़ूर है
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ
आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम
वां सर झुका के कीजिये दंडवत और सलाम
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ
इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर
आटा नहीं है छलनी से छन छन गिरे है नूर
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर
इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ
पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे
हम तो न चाँद समझे न सूरज हैं जानते
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ
फिर पूछा उस ने कहिये ये है दिल का नूर क्या
इस के मुशाहिदे में है खुलता ज़हूर क्या
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या
कश्फ़=प्रदर्शन; क़ुलूब=हृदय
शनिवार, मई 02, 2009
रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी
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